parali : पराली जलानें की समास्या आधुनिक कृषि व्यवस्था की देन कैसे हैं ?

भारत की ग्रामीण व्यवस्था इस तरह से डिजाइन थी कि एग्रीकल्चरल वेस्ट जैसा यहां कुछ होता ही नहीं था। हर चीज काम की होती थी और रीसाइकल्ड भी होती थी। जरूरत ही नहीं थी जमीन में आग लगाने की। जमीन में आग लगाने से सबसे अधिक नुकसान जमीन का ही होता है। किसी भी बूढ़े आदमी से पूछना जमीन में आग लगाने को आगामी फसल के लिए नुकसान दायक बताएगा। परंपरागत रूप से गांवों में खेतों पर आग सिर्फ बाढ़/मेढ़ के कांटों या कंटीली सुखी झाड़ियों को ही लगाई जाती है खेत से बाहर या एक कोने में इकट्ठा करके।


जबसे खेती में पशुओं की उपयोगिता खत्म हुई है, मिट्टी के चूल्हे जलना बंद हुए है और गैर क्षेत्रीय फसलें (जैसे हरयाणा पंजाब में चावल) होना शुरू हुई है तभी से एग्रीकल्चरल वेस्ट पैदा होना शुरू हुआ है।



मक्का की खेती जिसने भी देखी हो वह जानता है कि मक्का का पैड़ गन्ने के पैड़ के साइज का होता है। भुट्टा का साइज/वजन पैड़ का 10% ही होता होगा। और उसमें से भी मक्का के दाने ही अलग करने होते है। यानी एक मक्का के पैड़ का लगभग 90-95% भाग एग्रीकल्चरल वेस्ट होना चाहिए। पर मैंने कभीे नहीं देखा ऐसे आग लगाते हुए।



मेरे इलाके में मक्का ट्रेडिशनल फसल रही है। इसके पैड़ में तने के ऊपर का हिस्सा जानवरों के चारे के रूप में काम आता है। तने से लेकर जड़ तक चूल्हे में ईंधन के रूप में। और भुट्टे से मक्का निकलने के बाद जो डुंडा बचता है वह बळीते के रूप में काम आता है।

जब जानवर बचेंगे नहीं, चूल्हा जलेगा नहीं तो मक्का कड़बी को भी ऐसे ही आग लगानी पड़ेगी।



चावल हरियाणा पंजाब की फसल नहीं है बल्कि देश के दक्षिणी-पूर्वी हिस्से की फसल है। छत्तीसगढ़ का किसान ही बता सकता है क्या चावल के खेतों में पहले भी ऐसे आग लगानी पड़ती थी??


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