पांथिक नहीं धार्मिक बनिये

बुद्धदेव का जब महापरिनिर्वाण हुआ तो उस समय उनके सबसे प्रिय शिष्य 'महाकश्यप' वहां नहीं थे। उनके आये बिना बुद्ध के शरीर के संस्कार की आज्ञा नहीं थी। जिस समय सूचना मिली उस समय 'महाकश्यप' पांच सौ भिक्षुओं के साथ थे। शास्ता अब नहीं रहे, ये सुनकर सारे भिक्षु जार- जार रोने लगे। उनके क्रंदन के बीच सुभद्र नाम के एक भिक्षु ने कहा- मूर्खों ! रोते क्यों हो? ये सोचो कि अब हम मुक्त हो गए, हमें अब कौन रोकने वाला है- वो महाश्रवण बुद्ध तो हमें हर बात में रोकते- टोकते थे, बात-बात में चीजों का निषेध करते थे, लेकिन अब तो हम उन्मुक्त हैं इसलिए जश्न मनाओ। हम अब जो चाहे करेंगें और कोई हमें रोकेगा भी नहीं।

'महाकश्यप' समेत किसी भी भिक्षु ने 'सुभद्र' नाम के उस भिक्षुक का विरोध किया हो, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।

"पंथ मर्यादा" के कारण उन्होंने 'सुभद्र' जैसा जश्न तो नहीं मनाया पर ये सच था कि वो मन के जबरन दमन, कई तरह के प्रतिबन्ध, विषय- वासना पर नियंत्रण और बंधे जीवन और आनंद- उल्लास के किसी त्योहार के न होने से अनमयस्क हो गए थे। उन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं को ठीक से नहीं समझा, वो नहीं समझे कि शास्ता जो मार्ग बता रहे हैं, वो सबके लिए नहीं है ; इसलिए बुद्ध का धराधाम छोड़ना उनके लिए आनंदित होने का विषय था। उनके लिए नीरस जीवन से मुक्ति का अवसर था।

मानव मन का ये सहज स्वभाव है कि अगर वो प्रज्ञावान है तो कभी भी किसी बंधन को, नियंत्रण को, निषेध को स्वीकार नहीं कर पाता। हास्य, आनंद, ललित कला, उत्सव, रास-रंग, सौन्दर्य रस का पान करना ये सब पुरुष जाति की मूल प्रकृति हैं, ऐसे ही सजना- संवरना, सुंदर दिखने का जतन करना स्त्री जाति का स्वभाव है जबकि पंथों की वृद्धि के लिए आवश्यक है कि कई तरह के निषेध किये जाए, कई मर्यादों का पालन किया जाए, कठोर पांथिक अनुशासन थोपा जाए। 

ऐसा हर पंथ में है, जहाँ पंथानुशान उनके अनुयायियों का दम घोटने लगता है। पंथों में उत्सव आनंद के लिए कम रोने- पीटने और शोक मनाने के लिए अधिक होते हैं और इसलिए कोई भी पंथ दीर्घजीवी नहीं होता। मानव मन की सहज चेतना आस्ते- आस्ते विरोध कर बैठता है क्योंकि शोक कैसा भी हो वो लंबे समय तक नहीं ढोना चाहता और इसलिए पंथ दीर्घ जीवी नहीं होते। 

इसलिए "पांथिक" की जगह "धार्मिक" बनिए, सभी आस्थाओं को, मान्यताओं को, परंपराओं को, उत्सवों को, हर्ष व्यक्त करने के अवसरों को, गीत -संगीत और नाच -गानों को, प्रेम और सौंदर्य को जीवन में जगह दीजिए। एक राह की उबाऊ यात्रा छोड़ सभी रास्तों पर चलने का आनंद उठाइए। कभी मूर्तियों में देवी और देवताओं के पावन रूप का आनंद लीजिए तो कभी कबीर मठ में जाकर उनकी साखियां सुनिए, कभी शंकर देव के नामघरों में जाकर निराकार कृष्ण को तलाशिए, कभी मन आए तो बुद्ध के गुम्फों में ध्यान लगा आइए, कभी पावापुरी जाकर भगवान महावीर को नमन कर आइए और कभी इच्छा हो तो गुरुद्वारे में जाकर एक ओंकार सत नाम....का मधुर शब्द श्रवण करिए, जीवन जीने का आनंद आएगा वरना सारा जीवन खीज, ऊब, निंदा और दूसरे पंथों के दोष दर्शन में निकल जायेगा।


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