सनातनी अर्थ व्यवस्था का मूल क्या था ?

सनातनी अर्थ व्यवस्था का मूल संतोष था ।

जब हम संपूर्ण विश्व की gdp के 50% से अधिक थे उस समय तक हमारी अर्थव्यवस्था के मूल में सनातन धर्म था ।उस समय हम सोने की चीड़िया कहे जाते थे ।

जो वासनाओं पर नियंत्रण रखना सिखाता था । हमने पुरुषार्थ पर सदैव बल दिया है । धन सम्पत्ति अर्जित करना , यज्ञ और दान करना , तीर्थ यात्रा करना और अतिथियों का सत्कार करना कभी नहीं छोड़ा । 

पर आज की वैश्विक बाज़ार व्यवस्था वासनाओं को नियंत्रण के स्थान पर और बढ़ाने में संलिप्त है । अर्थात् आप एक फ़ोन ख़रीद कर लाए ही थे की अगला मॉडल उसका आ गया और उसका एडवरटाइज़िंग देख देखकर आपमें उस नए मॉडल को ख़रीदने की वासना जगने लगेगी । 

आपकी पत्नी भी वासनाओं के नियंत्रण के स्थान पर पड़ोसी की देखादेखी बाज़ार से नया कूड़ा बटोरने में व्यस्त हैं । 

यदि वासनाओं पर नियंत्रण नहीं है तब आपका मन कहीं न कहीं विचलित भी रहेगा और आप के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा । और आपका TCS से मिलने वाला 60 लाख रूपए वार्षिक का पैकेज आपको शीघ्र ही मेदांता (दिल्ली के पास का एक अस्पताल) में भर्ती करा देगा । और आपका बैंक बैलेंस तो छोड़िए आप वहाँ का बिल भरने में क़र्ज़े में डूब सकते हैं । और आपका स्वास्थ्य और ख़राब हो सकता है ।

आधुनिक बनने को हम सदैव तत्पर रहें पर अपनी बुद्धि को ईश्वर में लगाए बिना हो रहा विकास वास्तव में विनाश ही है । अत: आज से ही अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करने का प्रयास प्रारम्भ कर दीजिए । एक बार धर्म रूपी अर्थ अपने जीवन में लाइए , कामनाओं को पूर्ण करना बहुत कठिन नहीं रह सकता उसके पश्चात ।

पुन: याद कर लीजिए..

गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान। 
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

Raj Shekar tiwari

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