dharm parivartan: धर्म परिवर्तन की घटनाएँ जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक हुई ,उन क्षेत्रों के विषय पर चर्चा क्यों नहीं होती है? इसका कारण क्या है? यह आप सब स्वयं समझ लेंगे, कुछ तथ्य देखने के बाद......


धर्म परिवर्तन की घटनाएँ जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक हुई, और जिन क्षेत्रों में नगण्य उसके कारण पर चर्चाएं सदैव ही अत्यल्प देखी जाती हैं। इसका कारण क्या है? यह आप सब स्वयं समझ लेंगे, कुछ तथ्य देखने के बाद......

केरला जो कभी आचार्य परशुराम जी की कर्मस्थली और बाद में आचार्य शंकर की पूज्यस्थली बनी। वहाँ विश्व की सबसे पहली मस्जिद का निर्माण होता है।(साभार-गूगल)
आचार्य परशुराम जी और आचार्य शंकर की तपोस्थली और कर्मस्थली का इतना भयङ्कर पतन हुआ कि, सबसे पहला सांस्कृतिक आक्रमण उन्हीं के क्षेत्र में हुआ। और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह कि, यह सांस्कृतिक आक्रमण इतना भयानक था कि, आज केरला की स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है।
अफगानिस्तान भगवान बुद्ध की कर्मस्थली, जहाँ 64:34 बौद्ध और हिन्दू जाने जाते थे। ऐसे पुण्य भूमि पर जब म्लेच्छों का सांस्कृतिक आक्रमण हुआ तो अफगानिस्तान तभी तक सुरक्षित रहा जब तक अफगान से सटे ऋषि कश्यप की तपोभूमि सुरक्षित थी। अर्थात कश्मीर जो आचार्य शंकर की भी तपोभूमि थी।
परन्तु बहुत जल्द ही यह तपोभूमि भी आक्रांताओं से आप्लावित हो गयी।
समझ न आया कि ऐसी ऐसी पुण्य भूमियों का #चारित्रिक पतन इतना तीव्रगामी क्यों हुआ कि वे सम्पूर्ण रूप से मलेच्छमय बनती चली गयी?
बाद में सांस्कृतिक आक्रमण होता है, उन प्रदेशों(भूखण्डों) पर जहाँ हमारे #उदार सन्तों का व्यापक वर्चस्व देखा जाता रहा है। सम्पूर्ण मध्य भारत का वह समस्त क्षेत्र आज मलेच्छमय है, जो किसी न किसी उदार चरित या प्रबल तेजोमय महात्माओं का पुण्यस्थल था।
अन्तिम घटना की बात करूँ तो, पाकिस्तान के पेशावर से लेकर लाहौर तक, जहाँ महाराज #रणजीत सिंह की तलवार चली, वहाँ आचार्य दयानन्द सरस्वती जी का पंथ #आर्य समाज प्रभावी था।
परन्तु कुछ ही दशकों में सम्पूर्ण आर्य समाजी परिक्षेत्र मलेच्छमय हो गया।

वाराणसी हुई या मथुरा, अयोध्या हुई या अन्य वो पुण्यभूमि जो किसी एक #विद्वान को कभी भी महत्व नहीं दे पाई, तभी तक म्लेच्छों से बची रही। जैसे ही इन परिक्षेत्रों में किसी एक बड़के संत का उद्विकास हुआ, आज वाराणसी से लेकर अयोध्या मथुरा आदि म्लेच्छों से संक्रमित सहज देखे जा सकते हैं।
आचार्य निश्चलानंद सरस्वती जी के कर्मक्षेत्र अर्थात #पुरी की बात करूँ तो उड़ीसा में होने वाले धर्म परिवर्तन की खबरें, सर्वाधिक उसी क्षेत्र में देखी जाती हैं।
ऐसा क्या कारण है? जो सनातन के हिमायतियों के पुण्यस्थल का ही भयङ्कर पतन देखा गया।
बल्कि उन प्रदेशों की स्थिति बहुत हद तक सुरक्षित रही, जो दुर्भाग्य से किसी प्रकार के  धार्मिक महातिमा को जन्म नहीं दे पाए।

बंगाल की विद्वता का परचम भला किससे छुपा है। परन्तु सबसे अधिक म्लेच्छ उसी बंगाल में पाए जाते हैं। जो भारत की अनेक सांस्कृतिक #क्रांतियों का जनक रहा। वह अपने ही प्रदेश को रक्षित नहीं कर पाया? 
क्यों?

सामान्य तो क्या विशिष्ट स्थिति में भी कोई इस परिपेक्ष्य में चर्चा करता हुआ नहीं दिखता।
क्योंकि इस विषय पर जब भी व्यापक चिन्तन किया जाता है, तब हमारी संस्कृति की अनेक विशेषताओं का सहज ज्ञान होता है। जो आज के तथाकथित विद्वानों के अनेक मत और विचारों को अत्यंत उथला बता देते हैं। इसलिए निज कमी को छुपाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि, 
इतिहास के इस काले चरित्र पर कभी कोई बात ही न हो।

#धर्म आत्मा का स्वभाव है, किसी संगठन का स्वभाव नहीं। इसलिए ही भगवान कहते हैं, स्वभावो_हि_धर्म:। और जब स्वभाव ही धर्म हो, तब किसी प्रकार का सांगठनिक विस्तार या चरित्र का भाव जब  प्रभावी होगा तो निश्चय ही अनेक प्रकार के स्वाभाविक चरित्र को बाधित करेगा ही। और जब निज स्वभाव में बाधा आएगी तो निश्चय ही हमारा पतन होगा।

गौतमबुद्ध से लेकर जितने भी महात्मा निज मान्यताओं का निज आचरण का और निज स्वरूप का गौरवगान करते हुए एक नए चरित्र और आचरण की स्थापना की।
वह चरित्र और आचरण मनुष्य के यथार्थ स्वभाव के अनुकूल न होने पर मनुष्यों को दोहरे चरित्र का बना डाला।
जिसका परिणाम हुआ संशयों_में_भयङ्कर_वृद्धि।
जब मन संशयों से आप्लावित हो जाय तो उस व्यक्ति के समूल पतन का सहज मार्ग सुसज्ज हो ही जाता है।
यही वह मूल कारण बना इन बहुत बड़े पुण्यस्थल और तीर्थस्थलों के भीषण पतन का।

आचार्य शंकर का उपदेश था #अद्वेत अर्थात "एकोअहं द्वितीयोनास्ति, अहं ब्रह्मास्मि और ब्रह्मसत्य जगत मिथ्या"।
परन्तु आचार्य शंकर के बाद उनके मत का दो विभाग हो गया।
प्रथम, एकजीववाद और द्वितीय बहुजीववाद
अद्वेतवाद अब दो भिन्न वाद में बंट चुका था। जो कभी तपोभूमि थी, अब #संसयभूमि बन चुकी थी। जिसका परिणाम हुआ विश्व की सबसे पुरानी मस्जिद केरला में स्थापित हुई।

यही गति कश्मीर के साथ हुआ।
कश्मीर की विद्वता का परचम देखें, वहाँ के प्रत्येक वर्ण के लोगों को कश्मीर बाह्य के लोग #कश्मीरी_पण्डित कहते हैं/थे।
परन्तु तन्त्र और तान्त्रिक विधाओं में द्वन्द्व से उपजे संशयों का परचम इतना प्रभावी हुआ कि, 
योगस्थली कही जाने वाली पुण्यभूमि आज #मलेच्छभूमि है।
वीरों का प्रदेश कहा जाने वाला #गांधार बौद्ध की नास्तिकता और हिंदुओं का मत वैभिन्यता का #दंश कुछ इस प्रकार झेलने को बाध्य हुआ कि,
जैसे-जैसे हिन्दू अफगान से समाप्त होते गए, वैसे वैसे समूचा अफगानिस्तान मलेच्छभूमि बनता चला गया।

यही स्थिति मध्य भारत की भी रही, जहाँ तथाकथित सन्तों के आचरण और उनके शिष्यों का प्रादुर्भाव हुआ, वो सारे प्रदेश आज मलेच्छभूमि बन चुके हैं।
उदाहरण बंगाल का सम्मुख है। 
आर्य समाज जिन क्षेत्रों में सम्यक विकास किया, आज उनमें से एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं जो हिन्दू बहुल हो या कुछ सँख्याधिक्यता ही देखी जाती हो हिंदुओं की। बल्कि सीधे क्लीनस्वीप ही मिलेगा।

इसलिए एक विचारक जब भी किसी प्रकार के चिंतन को आज ख्यापित करता है, वह किसी भी तथाकथित संत वा महात्मा के गुणगान से भयङ्कर दूरी बनाए रखकर ही बात करता है। वह कभी किसी एक परम्परा, कभी किसी एक गुरु वा सम्प्रदाय के विषय में बात करने से निश्चय ही दूरी बनाए रखकर ही बात करता है।

क्योंकि उसे भलीविधि ज्ञात होता है कि,
संगठन/सम्प्रदाय अगर अपने अभीष्ट लक्ष्य अर्थात #शिक्षा प्रदान करने से आगे बढ़े तो समाज का उस स्तर तक पतन कर देंगे,
जिस स्तर का पतन #सैन्यशाषित प्रदेश में भी नहीं देखा गया होगा।

आज बलिप्रथा पर विवाद छिड़ा हुआ है।
शंकर सम्प्रदाय के विद्वान कहते हैं, भोग योनि से मुक्ति करके बलि दिए जाने वाले जीव पर #उपकार किया जाता है, जबकि अन्य बलि प्रथा के विरोधियों की मान्यता है कि,
किसी "जीव हत्या" को सपोर्ट नहीं किया जा सकता।
तथाकथित शाक्त सम्प्रदाय वाले बलि प्रथा के बन्द होने को ही #हिंदुओं की कापुरुषता का मूल कारण बताते हैं।

परन्तु आचार्य शंकर सम्प्रदाय वाले #कौषीतकि_ब्राह्मण के निर्देश को स्वीकारना नहीं चाहते।
आम जन लाखों टन माँस भक्षण करने के बाद भी 100-50 पशुओं के जीवन की दुहाई देते दिखते हैं।
जबकि शाक्तों की बात ही क्या करूँ?
ये उन नराधमों में से हैं, जो तथाकथित #तन्त्र के लिए किस हद दर्जे की नीचता को भी स्वीकार के लें, कहना मुश्किल है।

अब एक विचारक ऐसी स्थिति में क्या करे जरा आप सब ही विचार कर कहें न...........

जय श्री कृष्ण
कु.नमिता आलोक भारद्वाज 

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