Raghuvansham : रघुवंश द्वितीय सर्ग का काव्य सौन्दर्य सोदाहरण वर्णित कीजिए

महाकवि कालिदास द्वारा विरचित रघुवंश के रूप में प्रख्यात 19 सर्ग का उदात्त एवं सरस महाकाव्य है । कथावस्तु की महनीयता और साथ ही उसके सुव्यवस्थित संग्रथन मार्मिक स्थलों के सरस वर्णन , विविध मनोभाव की सरस एवं प्रभावोत्पादक अभिव्यंजना , पात्रों के स्पष्ट चरित्र चित्रण उनके परस्पर मनोहर नाटकीय संवाद , प्राकृतिक दृश्यों के स्वाभाविक एवं रोचक वर्णन अलंकारो के मौलिक , उपयुक्त एवं स्वाभाविक प्रयोग छन्दो के सौन्दर्य , शैली की सरलता व स्पष्टता,प्रांजल तथा परिमार्जित भाषा का मधुर प्रवाह इत्यादि के कारण रघुवंश काव्य शब्दों के कण्ठ का हार बन अपने रचयिता की कीर्ति पताका को विश्व में फहरा रहा है । दिलीप द्वारा नन्दिनी की सेवा का वर्णन दिलीप और मायावी सिंह का संवाद ,रघु और इन्द्र का संवाद रघु की दिग्विजय विलाप का वर्णन ,रघु कौत्सका संवाद इन्दुमति स्वयंवर का वर्णन , इन्दुमति के वियोग में अज का करूण विलाप ,दशरथ की मृगय का वर्णन ,दशरथ के द्वारा श्रवण कुमार के आहत होने का वर्णन , राम और परशुराम के सामुख्य का वर्णन ,सीता परित्याग ,परित्यक्ता सीता का करूणा परिवेदन ,कुश के ऐश्वर्य और अग्नि वर्ण के विलास का वर्णन आदि स्थल कवि द्वारा रघुवंश की सृष्टि में तीर्थस्थल है जिनमें उतरकर काव्यरसिक जन रस धारा में निमग्न हो काव्यामृत का पान करते हुए अपने को धन्य करते हैं ‌ । महाकवि ने रघुवंश महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में एक बहुत ही सुन्दर नाटकीय दृश्य उपस्थित कर दिया है। महाकवि ने रघुवंश महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में एक बहुत सुन्दर नाटकीय दृश्य उपस्थित कर दिया है। अकस्मात गौ पर सिंह का आक्रमण होता है, राजा स्वभावत : विस्मित होते हैं , नाटकीय संवाद होता है , और अन्त में राजा लोकोत्तर कार्य को संपादित करते हुए गौ की रक्षार्थ अपने शरीर को दान कर देने को उद्यत हो जाते हैं। यह सब मिलाकर प्रस्तुत सर्ग पाठक को ऐसा आनंद प्रदान कर देता है की मानो वह कोई नाटकीय दृश्य अपने समक्ष अभिनीत होता हुआ देख रहा है। 


रघुवंश के द्वितीय सर्ग की प्रमुख विशेषताएं 

(१) प्रस्तुत सर्ग की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें महाराजा दिलीप का चरित्र , यशोधरा , दयालु ,गृहीत किए हुए व्रत का दतचित्र होकर निष्ठापूर्वक पालन करने वाले स्वावलंबी ,गौ सेवक दुष्ट नियन्त पराक्रमी प्रकृति प्रेमी , गुरु के प्रति परम श्रद्धालु के रूप में प्रगट हुआ है। राजा दिलीप अपने अपमान
 व पराभव को सहन करने वाले एक मानधन व्यक्ति हैं। वे सुशील सच्चे क्षत्रिय राजा है। वे नश्वर शरीर में विशेष आस्था नहीं रखते कर्तव्य की रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग को उद्यत हो जाते हैं । हृदय में अपार करूंणा से भरा है , वंश की प्रतिष्ठा के लिए लालयित है वे सत्यनिष्ठ एवं उदात्त चरित्र महापुरुष हैं । संक्षेप में एक सनातनी क्षत्रिय राजा के प्रतीक हैं। कवि राजा दिलीप  के उक्त चरित्र का चित्रण का चित्रण और उनके भावो का अभिव्यंजन बड़े ही सुन्दर ढ़ंग से किया है। 


(२)प्रस्तुत सर्ग की दुसरी विशेषता सिंह और दिलीप के संवाद का नाटकीय सौन्दर्य है जिसमें एक पक्ष कितने सुंदर एवं युक्तियुक्त ढंग से अपने को प्रस्तुत करता है और दूसरा उसका उत्तर देते हुए अपने पक्ष का समर्थन करता है जो देखते ही बनता है। 


(३)तीसरी विशेषता है साभिप्राय शब्दों का प्रयोग । सन्तान प्राप्ति की कामना से जब सुदक्षिणा नन्दिनी की पूजा करती है तो जाया कहा गया है । (पुत्र जनन की योग्यता वाली )राजा का उसने अनुगमन किया तो उसे सुदक्षिणा धर्म पत्नी कहा गया क्योंकि वह राजा की अनुवर्तिनी है। 
राजा ने उसे लौटाया तो उसे दयिता कहा क्योंकि कहा क्योंकि वह राजा को इतनी प्रिय है कि उसका कष्ट उन्हें सह्रा नहीं। इसी प्रकार अनेक साभिप्राय शब्दों का प्रयोग यथा स्थान कवि ने किया । 

(४) प्रस्तुत सर्ग में प्रकृति को चेतना रूप चित्रित किया गया है। पक्षी राजा का गुणगान करते हैं लताएं उनके स्वागत में पुष्प वर्षा करती है । हिरणिया निर्भय होकर उनका दर्शन करती है । वन देवता यशोगान करते हैं । संपूर्ण चित्र उनकी उपस्थिति प्रवेश से प्रभावित हैं। प्रकृति को आलम्बन रूप में चित्रित किया गया है । 


(५) सर्ग में उपमा उत्प्रेक्ष अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों की सुन्दर छटा यत्र तत्र दिखाई देती है साथ ही बहुत सुन्दर तथ्यपूर्ण सुक्तिया का प्रयोग भी किया गया है जिससे भाषा तथा उक्तियां को सुन्दर बनाया है।  उदाहरण हेतु 

सञ्ञारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते निलयान गन्तुम । 
प्रचक्रये पल्लवरागताम्रा प्रभा पतड्गस्य मुनेश्च धेनु:।।१५।। 


(६) शब्द विधान बहुत ही सुन्दर सहज व सरस है । भाषा स्वत: ही ललित एवं सानुप्रास गई है कहीं भी भाषा में क्लिष्टता तथा कृत्रिमता नहीं आ सकी । जैसे प्रजानामाधिव : सोरभेयी सुरभि हुत हुताशम वशी वसिष्ठ: प्रजा प्रजार्थ भूयं स: भूमे आदि अत: भाषा भाव चरित्र निर्माण और संवाद आदि दृष्टि से प्रस्तुत सर्ग एक बहुत ही सुन्दर काव्य खण्ड बन सका है। 


छन्द विधान - रघुवंश के द्वितीय सर्ग के अन्तिम श्लोक में प्रयुक्त मालिनी छन्द को छोड़कर शेष श्लोक १ से ७४ तक उपजाति छन्द का प्रयोग किया गया है । यह इन्द्रवज्रा उपेद्रव्रज छन्दो का मिश्रित रूप है जिसके पाद में ११ वर्ण होते हैं । 

गुण और रीति - महाकवि कालिदास सरसवाणी के रस सिद्ध कवि हैं उनकी रचनाओं में होता महाकवि कालिदास की लोकप्रियता का मुख्य कारण उनकी प्रसादयुक्त लालित्यपूर्ण और परिमार्जित शैली ही है । 

कालीदास की समस्त रचनाएं वैदर्भी रीति में ग्रंथिस है और इसके सिद्धहस्त रचनाकार इसलिए समीक्षकों ने वैदर्भी रीति सन्दर्थे कालीदासो विशिष्यते लिखा है। 

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