क्या केंद्रीयकृत राजनीतिक समाजिक और आर्थिक व्यवस्था धर्म संस्कृति के लिए घातक सिद्ध क्यों होती है ?

क्या केंद्रीयकृत राजनीतिक समाजिक और आर्थिक व्यवस्था धर्म संस्कृति के लिए घातक सिद्ध क्यों होती है ?इस विषय पर विमर्श करनें की आवश्यकता है इसके अलावा जब अब रामराज्य की बात करते हैं तो रामराज्य के समय जो राजनीतिक समाजिक आर्थिक राजनैतिक लागू थी उसकी बात क्यों नहीं करते हैं ? इसके अलावा इसी कलिकाल में सम्राट विक्रमादित्य के समय भारत सोने की चिड़िया बना था उस समय की शासन व्यवस्था का अध्ययन करेंगे तो विकेंद्रीकृत राजनीतिक समाजिक आर्थिक व्यवस्था के सिद्धांतो को पाएंगे वर्तमान में जो व्यवस्था चल रही है उसमें आचार्य चाणक्य की केंद्रीयकृत राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था को सिद्धांतो को पाएंगे जिसके कारण धर्म संस्कृति लगातार ह्रास हो रहा है समाज का नैतिक पतन हो रहा है ऐसा चलता रहा तो जो स्थिति भारत की मौर्य काल में हुई थी और अवैदिक मत बहुत शक्ति हो गए तो सनातन धर्म का ह्रास होने लगा था वही स्थिति फिर से निर्मित हो जाएगी । धर्म संस्कृति की रक्षा करनी है तो राजनीतिक समाजिक आर्थिक व्यवस्था और न्याय व्यवस्था को विकेंद्रीकृत करना ही पड़ेगा नहीं तो धर्म बचेगा न देश सबकुछ समाप्त हो जाएगा ‌। राजनैतिक व्यवस्था केंद्रीयकृत हो सकती है इसमें इतनी समास्या नहीं है लेकिन समाजिक आर्थिक न्याय व्यवस्था केंद्रीयकृत कभी भी केंद्रीकृत नहीं होनी चाहिए नहीं तो समाज में ऐसी अव्यस्था फैलाती है जिसे समेटने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। मौर्य साम्राज्य द्वारा फैलाएं गए रायता को समेटते समेटते हुए कई पीढ़ियां खप गई फिर भी पूरी तरह से आज भी रायते को नहीं समेटा जा सका न समेटा जा सकेगा क्योंकि केंद्रीयकृत राजनीतिक समाजिक आर्थिक न्याय व्यवस्था नास्तिकता और अवैदिक मतो को और भौतिकतावाद को बढ़ावा देती है जिसका परिणाम यह होता धर्म संस्कृति के विहिन समाज हो जाता है अंत में यही होता जो पिछले हजार वर्ष से भारत में हो रहा है ।

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