अथर्ववेद के एक मंत्र (अथर्व-का. सू. ८ मं. २७) में ऋषि कहते हैं


त्वं स्त्री त्वं पुमा नसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । त्वं जीर्णो दण्डेन वन्चसि, त्वं जातो भवसि विश्वतो मुखः ।।

अर्थात्, "यह आत्मा ही अपने कर्मानुसार कन्या या कुमार का रूप लेता है। कभी स्त्री या कभी पुरूष बनकर जन्म लेता है । जब शरीर जीर्ण हो जाता है- तब वह अपने कर्मानुसार नया जन्म पाता है। अर्थात् कर्मानुसार ही नई योनि पाता है। आत्मा सदैव से अनादि है । आत्मा अलिंगी होता है।"

जिस आत्मा का कोई लिंग नहीं होता उस आत्मा की कोई जाति भी नहीं होती। हो सकता है किसी और जन्म में हम किसी और जाति में जन्में रहें हों इसलिए किसी भी जाति को हीन, तुच्छ या श्रेष्ठ समझना हिंदू धर्म के मूलचिंतन के विरुद्ध है। ऐसा इंसान किसी जाति विशेष को कमतर या तुच्छ या त्याज्य समझकर अपने पूर्व के जन्मों के माता- पिता का अनादर करता है। 

नाड़ी ज्योतिष में जिनकी पत्री मिल जाती है उन्हें उनके पूर्व जन्म का पता हो जाता है। ऐसे दर्जनों लोगों को (जिनकी पत्री मिली) मैं जानता हूं जो पिछली जन्म में किसी और जाति में जन्में थे या किसी और क्षेत्र में जन्में थे। कई मित्र ऐसे मिले तो इस जन्म में किसी जाति विशेष से घृणा करते थे और अपने पिछले जन्म में वो उसी जाति के निकल गए या किसी प्रांत या क्षेत्र से घृणा करते थे और पूर्व के जन्मों में वो उसी क्षेत्र में जन्में थे।

जो भी जातिगत या क्षेत्रीय श्रेष्ठता का दंभ भरता है; उसने हिंदू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को समझा ही नहीं है। दिन रात कर्म फल और पुनर्जन्म सिद्धांत का गीत गाने वाले, उपदेश करने वाले जब अपने अंदर से इस बात का कलुष नहीं निकाल पाते कि फलाना नीची जाति का है और मैं ऊंची जाति का हूं तो हिंदू धर्म को उसने क्या खाक समझा है। 

हिंदू की सिर्फ एक आइडेंटिटी है और वो ये कि वो "हिंदू" है और उसका आपस में सिर्फ एक रिश्ता है और वो ये कि वो "सहोदर" हैं।

पुनर्जन्म के सिद्धांत को समझने वाला सिर्फ हिंदू रह जाता है, उसकी अपनी बाकी आइडेंटिटी केवल उसके सामाजिक रिवाजों को निभाने भर के लिए रह जाती है। 

इस बात को समझते हुए केवल हिंदू बनिये। केवल हिंदू रहकर सोचेंगे तो किसी को उसकी जाति और जन्म के आधार पर तुच्छ समझने का भाव कभी आएगा ही नहीं न ही खुद को श्रेष्ठ समझने का कीड़ा काटेगा।



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