Sanatani economic model सनातनी आर्थिक मॉडल क्या है जानने के लिए पढ़ें पूरा आलेख




हम लोग आर्थिक मॉडल का जिक्र करते हैं तो दो मॉडल की ही बात करते हैं पूंजीवाद और समाजवाद या सम्यवाद दोनों अवधारणाएं इस समय बहुत प्रचलित है उसके आलावा तीसरा मॉडल मिश्रित आर्थिक मॉडल भी है जिसमें पूंजीवाद और सम्मवाद के प्रमुख और महत्वपूर्ण सिद्धांतो को लेकर एक आर्थिक मॉडल तैयार किया गया है । फिर भी इन आर्थिक सिद्धांत और मॉडल की विवेचना करने से हिचकते रहते हैं क्योंकि हम लोग किसी न किसी राजनीतिक समाजिक अपने निजी अनुभव के आधार पर अपनी विचारधारा बनाते हैं फिर भी हम लोग यह भूल जाते कि हमारे जीवन के लिए क्या उपयोगी है? क्या उपयोगी नहीं है इसकी चिंता कभी नहीं करते हैं क्योंकि हमारी विचारधारा अपने जीवन और लोगों के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है । जब से पूंजीवादी और समाजवादी आर्थिक मॉडल प्रचलन में है तो तब से धर्म संस्कृति का ह्रास ही हो रहा है क्योंकि ये दोनों आर्थिक सिद्धांत केंद्रीकृत व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं जिससे पूरी शक्ति और संसाधन कुछ व्यक्तियों के पास आ जाते हैं । चाहे समाजवाद हो या पूंजीवाद दोनों के सिक्के के दो पहलू हैं । क्योंकि समाजवादी या सम्मवादी आर्थिक मॉडल सारी शक्ति और सारे सांसधन पर सरकार का नियंत्रण हो जाता है जिससे बाज़ार में प्रतिस्पर्धा पूरी तरह समाप्त हो जाती है और लोकल इंडस्ट्री पूरी तरह तबाह और बर्बाद हो जाती है उसी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था जिसमें पूरे सांसधन कुछ पूंजीपतियों को हाथ में होते हैं जो लोकल इंडस्ट्री को बढ़ने नहीं देते हैं खुले बाजार के नाम पर खुले बाजार की व्यवस्था के विरूद्ध काम करते हैं । उदाहरण के लिए लोकल किसान अपने घर में चिप्स बनाकर बाजार में 400 रूपए किलो के भाव से बेच रहा उसे प्रॉफिट भी हो रहा है उसके साथ 5 से 6 लोग काम भी कर रहे हैं । उसी गांव में कुछ साल बाद एक बड़ी चिप्स बनाने वाली कंपनी आती है वह कहती हम किसानों 30 रूपए किलो आलू खरीदेंगे किसान खुशी खुशी तैयार हो जाता है । जब कुछ वर्ष बीत जाते हैं किसान को प्रॉफिट की बजाय नुकसान होने लग गया क्योंकि आलू खेती लागत बढ़ गई है उसे 30 रूपए में लाभ नहीं मिल रहा है अब किसान कंपनी के मालिक के पास जाता है और कहता है की 30 रूपए में कुछ नहीं हो रहा क्योंकि आलू की खेती करने में लागत बढ़ गई इसमें कंपनी वाला कहता हम 30 रूपए से ज्यादा नहीं देंगे हमें नुक्सान हो रहा है किसान कंपनी मालिक यहां से निराश होकर लौट जाता है । अब सोचता है कि हम जब आलू का चिप्स बनाकर 400 रूपए किलो बेच रहे थे तब हमारे यहां चार से छह लोग काम कर रहे थे हमारे गांव में 10 से 15 किसान भी इसी तरह से कर रहे थे उनके साथ भी 5 से 6 लोग काम कर रहे थे मतलब हमारे साथ 90 से 100 लोग प्रत्यक्ष काम भी कर रहे थे फिर यह कंपनी आई 30 रूपए किलो आलू खरीदने का वादा किया बड़ी बड़ी मशीनें लगाकर काम शुरू किया उसमें प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप 50 लोगों को रोजगार भी दिया फिर भी समय बीतने के साथ हम लोगो मुनाफा कम हो गया कंपनी की एकाधिकार चिप्स के बाजार पर हो गया जब तक अपने से चिप्स बनाकर बेचते थे तो हमें मुनाफा हो रहा था हमारे साथ 5 से 6 लोगों का घर भी चल रहा था । अब सारे चिप्स के बिजनेस पर बड़ी कंपनी का एकाधिकार हो गया हमारे गांव की लोकल स्तर पर चलने वाली चिप्स इंडस्ट्री पूरी तरह नष्ट हो गई किसानों को अब कंपनियों का बंधुआ मजदूर बनना पड़ रहा है जो कंपनी ने मूल्य तय कर दिया उसी पर बेचने के लिए हमें मजबूर होना पड़ा रहा है हम कुछ करने की स्थिति में भी नहीं रह गए हैं अब कुछ नहीं कर सकते हैं । पूंजीवाद और समाजवाद दोनों आर्थिक मॉडल केंद्रीयकृत व्यवस्था के समर्थक हैं विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के व्यवस्था और खुले बाजार की व्यवस्था के घोर विरोधी सिद्धांत क्योंकि दोनों सिद्धांत के मूल उपभोक्तावाद है । इसलिए दोनों सिद्धांत बाजार में प्रतिस्पर्धा समाप्त करके अपना वर्चस्व और एकाधिकार स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । जैसे मै ने शुरुआत में लिखा हूं समाजवाद या सम्यवाद पूरी तरह से सरकार सबकुछ नियंत्रण हो जाता है सरकार ही बिजनेस करती है जिसमें सभी संसाधन सरकार के हाथ में आ जाते हैं और आम आदमी सिर्फ सरकार गुलाम बनाकर रह जाता है और वही स्थिति पूंजीवाद में सारे संसाधन कुछ चंद पूंजीपतियों के हाथों में हो जाता है आम आदमी पूंजीपतियों को रहमो करम पर चलने को मजबूर हो जाता उसके पास कोई विकल्प नहीं रह जाते हैं। क्योंकि सम्यवाद में सबकुछ सरकार नियंत्रण होने कारण बाजार में प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाती है पूंजीवादी व्यवस्था में कुछ पूंजीपतियों के कारण बाजार में प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जाती है । क्योंकि बाजार में प्रतिस्पर्धा रहेगी छोटे उद्यमी खड़े होंगे लोकल स्तर पर उत्पादन होने लगेगा और लोकल स्तर पर आपूर्ति होने लगेगी तो लोग अपने गांव कस्बे से बाहर नहीं जाएंगे आत्म निर्भर बन जाएंगे जब लोग आत्मनिर्भर हो जाएंगे बड़े उद्योगो की आवश्यकता भी सीमित हो जाएगी और संसाधनो की असमान्य वितरण की समास्या हल हो जाएगी इस स्थिति में सम्मवादी और पूंजीवादी आर्थिक मॉडल के अप्रासंगिक हो जाएंगे इस स्थिति में सरकार और पूंजीपतियों को बहुत नुक्सान हो जाएगा इसलिए ये लोग समाज को भ्रमित करने के लिए अलग अलग हथकंडे अपनाते हैं यहां तक अपने को एक दुसरे का विरोधी बताने का प्रयास करते हैं । दुनिया के सामने तो दोनों आर्थिक विचारधारा को मानने वाले एक दूसरे को विरोधी दिखाई पड़ते हैं अन्दर से दोनों एक दूसरे के मित्र होते हैं । क्योंकि इन दोनों आर्थिक सिद्धांतो का वजूद इसी पर टिका हुआ कि कैसे बाजार में एकाधिककार बनाए रखे इनके एकाधिकार को धर्म संस्कृति और परिवार लोक परंपरा चुनौती देते हैं तो ये दोनों आर्थिक सिद्धांतो को मानने वाले लोग धर्म संस्कृति परिवार और लोक परंपरा को समाप्त करने का पूरा प्रयास करते रहते हैं ।


दीपक कुमार द्विवेदी
मैनेजिंग एडिटर
 जय सनातन भारत 

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