आजाद भारत के गुमनाम नायक बिन्दा तिवारी



पश्चिम बंगाल के बैरकपुर को आज बच्चा बच्चा जानता है, तो उसकी बड़ी वजह मंगल पांडेय है। 29 मार्च 1857 को मंगल पांडेय ने जो विद्रोह का बिगुल बैरकपुर छावनी से शुरू किया, उसने अंग्रेजों की चूलें अगले दो साल तक हिलाए रखीं। लेकिन उसी बैरकपुर में आर्मी कैंटोनमेंट से रोज तीन वक्त यानी ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर खाने का टिफिन बॉक्स रोज एक खास व्यक्ति के लिए बनकर आता है।

बैरकपुर के एक ऐसे सिपाही के लिए, जिसके बारे में कहा जाता है, उसकी वीरता की कहानियां सुनकर मंगल पांडेय अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने का जज्बा जुटा पाए। नाम था बिंदी तिवारी, आज भी उन्हें बिंदा बाबा के नाम से जाना जाता है। सिपाहियों ने उनकी मौत के बाद उनका एक मंदिर उसी जगह बनवाया, जहां अंग्रेजों ने उन्हें दर्दनाक मौत दी थी। उसी बिंदा बाबा के मंदिर में रोज आर्मी कैंट से सिपाहियों की एक टीम तीन वक्त का खाना लेकर बाबा का भोग लगाती है।

देश बिंदा तिवारी को नहीं जानता, लेकिन उनकी कहानी किसी भी मायने में मंगल पांडेय से कम बहादुरी की नहीं है। भले ही आधिकारिक इतिहास में मंगल पांडेय को 1857 की क्रांति का अग्रदूत माना जाता है।

मंगल पांडेय के विद्रोह से ठीक 33 साल पहले बिंदी तिवारी की अगुवाई में अंग्रेजों की उसी बैरकपुर छावनी, 47वी बटालियन के 1400 सैनिकों ने विद्रोह का ऐलान कर 9 दिन तक छावनी पर कब्जा जमा लिय़ा था। 2 नवंबर को कमांडर इन चीफ एडवर्ड ने पूरी छावनी को चारों तरफ से घेर लिया था। 9 नवम्बर को आखिरकार अंग्रेजी फौज ने बिंदा तिवारी को गिरफ्त में ले ही लिया। एडवर्ड ने बिंदा को बड़ी दर्दनाक मौत दी। उन्हें एक पीपल के पेड़ से जंजीरों से बांधकर आम जनता के देखने के लिए छोड़ दिया गया। ताकि लोग उनका अंजाम देख सकें। उनके मरने के बाद उनकी लाश महीनों तक उसी पेड़ के नीचे सड़ने के लिए छोड़ दी गई। अंतिम संस्कार भी नहीं करने दिया गया।

बिंदा तिवारी की मौत के बाद सिपाहियों ने उसी पीपल के पेड़ के पास एक छोटा सा मंदिर बिंदी तिवारी की याद में बना दिया। वो मंदिर आज भी है, उसे बिंदा बाबा के मंदिर के नाम से जाना जाता है। जहां उनके साथ साथ उनके आराध्य हनुमानजी की प्रतिमा भी है। बैरकपुर का हर सिपाही उनकी वीरता की कहानियों को वहां सुनता रहता है, लगभग हर सिपाही वहां मत्था टेकने जरुर जाता है। आज भी इस मंदिर में बाबा के भोग के लिए तीन वक्त का खाना बैरकपुर आर्मी कैंटोनमेंट से भेजा जाता है।

जो भी हो लेकिन ये सच है कि अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर में विद्रोह के बारे में सोचना, 1400 सिपाहियों को विद्रोह के लिए प्रेरित करना, उनकी अगुवाई करना, 9 दिन तक संघर्ष चलाए रखना, वो भी तब, जब साफ पता था कि इसका अंजाम सिर्फ और सिर्फ मौत है। ये आसान काम तो बिल्कुल नहीं था। ऐसे में जब देश का बच्चा बच्चा मंगल पांडेय को जानता है, तब उसे बिन्दा तिवारी जैसे गुमनाम नायक की कहानी भी जरूर पता होनी चाहिए।

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