तिरूपति बाला जी की कथा पढ़ने के लिए पढ़ें पूरा आलेख

 

कलियुग के प्रत्यक्ष भगवान वेंकटेश्वर बालाजी है 
 साक्षात् भगवान विष्णु ही भगवान वेंकटेश्वर के रूप में उपस्थित हैं
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एक बार समस्त देवताओं ने यज्ञ का निश्चय किया. यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गई. तभी वेद ने प्रश्न किया 
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ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष तो देव गण ग्रहण करते हैं लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की आहूति किसकी होगी. सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण आवश्यक था जो अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करें.
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ब्रह्मा-विष्णु-महेश परमात्मा थे. इनमें से श्रेष्ठ कौन है  
त्रिमूर्तियों में कौन सत्वगुण-संपन्न है ,भृगुजी ने इसका दायित्व संभाला.  
वह सर्वप्रथम ब्रह्मदेव के पास सत्यलोक गए, जहां ब्रह्मसभा में ब्रह्माजी वरुण, अग्नि आदि दिक्पालकों से सृष्टि के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे। 
.भृगुजी ने ब्रह्म देव से अशिष्टता किया. ब्रह्मा जी ने उन्हें मारने के लिए कमंडल उठाया, भृगु वहां से भाग चले . इसके बाद वह कैलाश गए.
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भृगु ने फिर से धृष्टता की. शिव जी ने त्रिशूल उठाया. भृगु वहां से भागे. 
अंत में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे. श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे 
.उन्होंने उनके वक्षस्थल पर पद प्रहार किया.
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श्री हरि विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले-महात्मन् मेरा वक्ष वज्र समान कठोर है. कहीं आपके सुकोमल चरणों को चोट तो नही लगी, उन्होंने लक्ष्मी जी को पाद्य-अर्घ्य लाने को कहा 
 आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा.
. भृगुजी ने लौट कर देवताओं को पूरी घटना सुनाई. निश्चय किया गया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझ कर मुख्य भाग दिया जाएगा.
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माता लक्ष्मी जी ने भृगुजी को श्री हरि को पदाघात करते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया. उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्री हरि ने उद्दंड को दंड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और क्षमा मांगने लगे.
.महालक्ष्मी रुष्ट हो गई उन्होंने श्री हरि और बैकुंठ लोक दोनों को त्याग कर भूलोक चली गई , जहां चोलराज के यहां उनकी पुत्री पद्मावती के रूप में अवतरित हुई 
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उन्हें मनाने के लिए भगवान विष्णु ने श्रीनिवास का रूप धरा और पृथ्वी लोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महालक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे. 

चोलनरेश आकाशराज निःसंतान थे. उन्होंने शुकदेव जी की आज्ञा से संतान प्राप्ति यज्ञ किया.
.यज्ञ के बाद यज्ञशाला में राजा को हल जोतने को कहा गया. राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया. राजा ने उस स्थान को खुदवाया तो एक मंजुषा में सहस्रदल कमल पर एक कन्या विराजमान थी. वह महालक्ष्मी थीं.
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राजा ने उसका नाम रखा पदमावती. पदमावती नाम के अनुरूप ही रूपवती और गुणवती थी. लक्ष्मी का अवतार. पद्मावती विवाह के योग्य हुई.
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एक दिन वह वाटिका में फूल चुन रही थी. उस वन में श्रीनिवास (बालाजी) आखेट के लिए गए थे. उन्होंने देखा कि एक हाथी राजकुमारी को मारने दौड़ा रहा था.
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श्रीनिवास ने बाण चला कर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की. श्रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ. 

श्रीनिवास ने ज्योतिषी का रूप धारण किया और पदमावती को ढूंढने निकले.
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धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गई. 

 ज्योतिषी की प्रसिद्धि चोलराज तक पहुंचीं.राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और राजकुमारी का भविष्य देखने को कहा, 
 
श्रीनिवास बोले- महाराज,आप राजकुमारी का शीघ्र विवाह कर दें,
.राजा ने श्रीनिवास से कहा- ज्योतिषी महाराज, 
तो योग्य वर भी आप ही बताएं 
तब श्रीनिवास ने बताया कि पद्मावती माता लक्ष्मी का अवतार है और भगवान विष्णु श्रीनिवास हैं
श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गया. श्रीनिवास रूप में श्री हरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी. शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए.
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देवी-देवता श्रीनिवास जी से मिलने और बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे. 

परंतु श्रीनिवास जी को एक चिंता होने लगी. देवताओं ने पूछा- भगवन ! संसार की चिंता हरने वाले आप इस आनंद उत्सव के अवसर पर चिंतातुर क्यों हैं ?
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श्रीनिवास जी ने कहा- चिंता की बात है, विवाह हेतु धन की व्यवस्था 

लक्ष्मी जी को महालक्ष्मी का स्वरूप विस्मृत हो गया है. वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं. उनका विवाह राजसी वैभव के अनुरूप ही होना चाहिए 
स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी. मानव रूप में आए प्रभु को भी विवाह के लिए धन की आवश्यकता हुई. यही तो ईश्वर की लीला है. जिस रूप में रहते हैं उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं.
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अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री हरि विवाह के लिए धन का प्रबंध कैसे हो, इस बात से चिंतित है. देवताओं को आश्चर्य हुआ. देवताओं ने कहा- कुबेर धन की व्यवस्था कर देंगे.
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देवताओं ने कुबेर का आह्वान किया तो कुबेर प्रकट हुए. कुबेर ने कहा- प्रभु धन का तत्काल प्रबंध करता हूं. कुबेर का कोष आपही द्वारा रक्षित है.
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श्री हरि ने कुबेर से कहा- यक्षराज कुबेर, कोष देवताओं का है और कुबेर उसके प्रबंधक है. 
मैं कोष से धन ऋण के रूप में लुंगा.
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 श्री हरि ने कहा- ब्रह्मा जी और शिव जी साक्षी रहें. कुबेर से धन ऋण के रूप में लूंगा जिसे ब्याज सहित चुकाऊंगा.
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श्री हरि की बात से कुबेर समेत सभी देवता विस्मय में एक दूसरे को देखने लगे. कुबेर बोले- भगवन, मुझसे कोई अपराध हुआ तो उसके लिए क्षमा कर दें. पर ऐसी बात न कहें. आपकी कृपा से विहीन होकर मेरा सारा कोष नष्ट हो जाएगा.
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श्री हरि ने कुबेर को निश्चिंत करते हुए कहा- आपसे कोई अपराध नहीं हुआ. मैं मानव रूप में उन कठिनाइयों का सामना करूंगा, जो मानव को आती हैं. 

.कुबेर ने कहा- प्रभु यदि आप मानव की तरह ऋण पर धन लेने की बात कर रहे हैं तो फिर आपको मानव की तरह यह भी बताना होगा कि ऋण चुकाएंगे कैसे ? 

श्रीनिवास ने कहा- कुबेर, यह ऋण मैं नहीं, मेरे भक्त चुकाएंगे लेकिन मैं उनसे भी कोई उपकार नहीं लूंगा. मैं अपनी कृपा से उन्हें धनवान बनाऊंगा. कलियुग में पृथ्वी पर मेरी पूजा धन, ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण देवता के रूप में होगी.
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मेरे भक्त मुझसे धन, वैभव और ऐश्वर्य की मांग करने आएंगे. मेरी कृपा से उन्हें यह प्राप्त होगा बदले में भक्तों से मैं दान प्राप्त करूंगा जो चढ़ावे के रूप में होगा. मैं इस तरह आपका ऋण चुकाता रहूंगा.

.श्रीनिवास जी बोले- शरीर त्यागने के बाद तिरुपति के तिरुपला पर्वत पर बाला जी के नाम से लोग मेरी पूजा करेंगे. मेरे भक्तों की अटूट श्रद्धा होगी. वह मेरे आशीर्वाद से प्राप्त धन में मेरा भाग रखेंगे. इसमें न कोई दाता है और न कोई याचक.
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हे कुबेर, कलियुग के आखिरी तक भगवान बाला जी धन, ऐश्वर्य और वैभव के देवता बने रहेंगे. मैं अपने भक्तों को धन से परिपूर्ण करूंगा तो मेरे भक्त दान से न केवल मेरे प्रति अपना ऋण उतारेंगे बल्कि मेरा ऋण उतारने में भी सहायता करेंगे.
.इस तरह कलियुग की समाप्ति तक मैं आपका मूलधन लौटा दूंगा. कुबेर ने श्री हरि द्वारा भक्त और भगवान के बीच ऐसे संबंध की बात सुनकर उन्हें प्रणाम किया और धन का प्रबंध कर दिया.
.भगवान श्रीनिवास और कुबेर के बीच हुए समझौते के साक्षी स्वयं ब्रहमा और शिव जी हैं. दोनों वृक्ष रूप में साक्षी बन गए. आज भी पुष्क रिणी के किनारे ब्रह्मा और शिव जी बरगद के पेड़ के रूप में साक्षी बनकर खड़े हैं.
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ऐसा कहा जाता है कि निर्माण कार्य के लिए इन दोनों पेड़ों को जब काटा जाने लगा तो उनमें से रक्त की धारा फूट पड़ी. पेड़ काटना बंद करके उनकी पूजा होने लगी.
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श्रीनिवास और पदमावती का विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ जिसमें सभी देवगण पधारे. भक्त मंदिर में दान देकर भगवान पर चढ़ा ऋण उतार रहे हैं जो कलियुग के अंत तक जारी रहेगा. 

🔥⚔️🔥जय श्री राम🔥⚔️🔥


सपना सिंह 

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