वोटिंग प्रतिशत कम क्यों हुआ?

सीधी सी बात है कि लोगों को चुनाव में कोई उत्साह नहीं दिख रहा। उत्साह तब दिखता है जब कुछ नया होने वाला हो। किसी को नया कपड़ा पहनना हो, नये मकान में शिफ्ट होना हो, उत्साह रहता है। लेकिन जब पुराना ही सिस्टम चलना हो तो उत्साह जैसी कोई बात नहीं होती।
मोदी समर्थकों को पता है कि मोदी का जीतना तय है, मोदी विरोधियों को पता है कि मोदी को हराना फ़िलहाल असंभव है। इसलिए न पक्ष में उत्साह है और न ही विपक्ष में। 2014 का चुनाव बहुत उत्साहवर्धक था, 2019 में भी थोड़ा बहुत उत्साह था पर 2014 वाली बात नहीं थी। इस बार उत्साह और कम है। मुसलमान उत्साह से वोट डालते हैं लेकिन रामपुर जैसे ज़िले में जहां मुसलमानों का प्रतिशत 50 से ज़्यादा है, वहाँ भी मतदान में कमी देखी गई। 2014, 2017, 2019, 2022 चार चुनाव लगातार सपा कांग्रेस में उत्साह दिलाया कि अबकि भाजपा को हटा देंगे, लेकिन हुआ क्या? उल्टा भाजपा को बढ़त मिलती जा रही है, इसलिए अब मुसलमान भी भाजपा मोदी को हराते हराते थक गए हैं और सपा कांग्रेस के दिखाये जाने वाले भय से भी उबर रहे हैं। रोज़ सपा कांग्रेस राजद वाले माहौल बनाते हैं की भाजपा मुस्लिमो को निगल जाएगी लेकिन ऐसा होता कुछ भी नहीं है, उल्टा दंगा लगभग बंद है। मुसलमानों के लड़के जो लड़ाई झगड़ा मारपीट मुक़दमा फ़ौजदारी में छाये रहते थे प्रशासन के दबाव में शांति से पढ़ाई लिखाई धंधा पानी में लग रहे हैं। कुल मिलाकर देश और समाज अंततः साम्य की तरफ़ बढ़ रहा है। 
यादव समाज भी थक चुका है, भाजपा को हराते हराते। भाजपा ने मोहन यादव जी के माध्यम से स्पष्ट मैसेज दे दिया है कि कोई भी समाज हमारे लिए राजनीतिक रूप से अछूत नहीं है। आप हमें वोट करेंगे तो हम भी आपका ध्यान रखेंगे। लगभग एक चौथाई यादव वोट सपा से कट कर अलग हो चुका है। मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा समाज को चुनाव से जस्ट पहले नायब सिंह सैनी को हरियाणा में मुख्यमंत्री बनाकर स्पष्ट तौर पर बता दिया गया है कि हम आपको भी लीडरशिप देंगे। बिहार में सम्राट चौधरी को दो दो महत्वपूर्ण ज़िम्मेवारी मिली हुई है। उपेन्द्र कुशवाहा भी घूमफिरकर पुनः लौट आये हैं। कुर्मी समाज जो कि मौर्य समाज की ही भाँति स्ट्राट्ज़िक वोटिंग करने के लिए प्रसिद्ध है उसके पास भी कोई स्पष्ट विरोध का कारण उपलब्ध नहीं है। बिहार में नीतीश कुमार, महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे, गोवा में प्रमोद सावंत और गुजरात में भूपेन्द्र पटेल सीधे भाजपा से अथवा भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री हैं। बनिया समाज मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में हैं, मेयर के सीटों पर बड़ी संख्या में इन्हीं का क़ब्ज़ा बना हुआ है। प्रधानमंत्री समेत गृहमंत्री एवं भाजपा के कई बड़े नेता इसी समाज से हैं। वित्तमंत्री, विदेश मंत्री समेत राजस्थान के मुख्यमंत्री ब्राह्मण समाज से हैं। भाजपा संसदीय समिति में जो की सबसे पॉवरफ़ुल है वहाँ भी ब्राह्मण समाज से ठीक ठाक प्रतिनिधित्व है। इसके अतिरिक्त संघ में भी इनका बड़ा प्रतिनिधित्व है। राजपूत समाज इस बार चर्चा में है, देश के रक्षामंत्री, दो दो महत्वपूर्ण राज्यों के मुख्यमंत्री इसी समाज से हैं। विधान परिषद में भी इनका दबदबा है। आदिवासी समाज के पास सीधे सीधे राष्ट्रपति पद के माध्यम से प्रतिनिधित्व है, वर्तमान में एक महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री भी इसी समाज से हैं। नार्थ ईस्ट में कई आदिवासी मुख्यमंत्री या तो भाजपा से हैं अथवा भाजपा के सहयोग से हैं। जाट समाज के पास उपराष्ट्रपति पद के माध्यम से प्रतिनिधित्व है। इसके अतिरिक्त इस बार जाट बनाम राजपूत विवाद के पीछे का कारण भी यहीं है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा जाटों के साथ खड़ी दिखाई पड़ रही है। 
लगभग हर प्रकार से सामाजिक समीकरण को भाजपा ने साधने का काम किया है। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि कांग्रेस सपा राजद आदि भाजपा को पीछे धकेल सकते हैं, एक दिवास्वप्न है। 
मस्त रहिए, प्रसन्न रहिए, मोदी जी को वोट दीजिए। सोशल मीडिया और यूट्यूब पर बनाये जाने वाले माहौल से टेंशन लेने की क़तई आवश्यकता नहीं है। 
कम वोट से किसी को डरने की ज़रूरत है तो वह है घमंडिया गठबंधन को।

डॉ भूपेन्द्र सिंह
लोकसंस्कृति विज्ञानी

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