महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी यह मुद्दे इस धरती पर कभी सोल्व क्यो नही हो सकते हैं

महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी यह मुद्दे इस धरती पर कभी सोल्व नहीं हो सकते क्योंकि आम लोगों के लिए इसका कोई एबसोल्यूट पैरामीटर नहीं है। यह एक फीलिंग है। पहले जिसके पैरों में चप्पल नहीं होता था, पहनने के लिए क़ायदे से एक जोड़ी कपड़ा भी नहीं होता था, वह गरीब होता था, जबकि आज जिसके पास केवल एक दो जोड़ी चप्पल है और महज़ दो तीन जोड़ी अच्छा कपड़ा है, वह गरीब है। इसी तरह पहले जिसके पास मकान नहीं था अथवा झोपड़ी में रहता था वह गरीब था, अब जिसके पास महज़ एक दो पक्के कमरे हैं, वह गरीब है। 
इसी तरह महंगाई है, समय के साथ रुपये का अवमूल्यन होना तय है, पहले दिन भर के मज़दूरी का व्यक्ति 65 रुपये देता था और आज उसी मज़दूरी का 300-400 देता है। उसी रेसियो में सब्ज़ियों के, फलों के, पेट्रोलियम के दाम भी बढ़ेंगे। लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति है कि उसके पास जो आता है, उसे वह कम लगता है जबकि जो जाता है वह ज़्यादा लगता है। इसलिए आप कभी भी किसी से पूछेंगे तो कहेगा कि बहुत महंगाई है। क्योंकि आम आदमी के लिए महंगाई का कोई पैरामीटर नहीं है, वह एक फीलिंग है। और मनुष्य को हमेशा वह चीज ज़्यादा समझ आती है, जो उसके पास जाती है। और आसान उदाहरण से समझें तो किसानों को लगता है कि उनको अनाज और सब्ज़ियों का सही दाम नहीं मिल रहा है जबकि उसी समय उसको ख़रीदने वाले को लगता है कि यह बहुत महँगा है। 
इसी तरह रोज़गार है। यदि कोई व्यक्ति ऑफिस में चपरासी है तो वह अपने क्लर्क को देखकर असंतुष्ट रहेगा, क्लर्क अपने ऑफिसर को देखकर, ऑफिसर अपने मालिक को देखकर। सबको लगता है कि ऊपर बैठे व्यक्ति को उसके योग्यता से अधिक मिल रहा है जबकि मुझे मेरे योग्यता से कम। इसीलिए कभी भी आप किसी से उसके नौकरी, रोज़गार के बारे में पूछेंगे तो वह सदैव असंतुष्ट रहेगा। जबकि मार्केट सबको उसकी योग्यता के अनुसार ऐडजस्ट करता है। पर अपने को कोई दूसरे से अयोग्य क्यों माने??
इस दुनिया में पूरी लेफ्ट आइडियोलॉजी इसी फीलिंग पर चलती है। चूँकि आम आदमी के पास महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी को समझने के लिए कोई साधारण पैरामीटर नहीं है इसलिए इस असुरक्षा को उभारना आसान है। जैसे भारत में 80% ग्रेजुएट अपने विषय का 20% नालेज भी नहीं रखते लेकिन वह चाहते हैं कि मार्केट उन्हें ग्रेजुएट के रूप में स्वीकारे। हज़ारों डिग्री कॉलेज खोलकर डिग्रियाँ बाँटी जा रही हैं, ऐसे विषयों कि जिससे स्किल में कोई ग्रोथ नहीं होने वाला पर ग्रेजुएट होने का अहंकार ज़रूर उत्पन्न कर देता है। बहुत से ग्रेजुएट ऐसे हैं जिन्हें अपने विषयों के भी नाम नहीं मालूम पर मार्केट में वैल्यू बराबरी से चाहते हैं। 
फिर सरकार का महंगाई, बेरोज़गारी और नौकरी में क्या रोल है?
सरकार का केवल इतना काम है कि मुद्रा के अवमूल्यन से अधिक ज़रूरी चीजों का दाम न बढ़े। यदि वस्तु का दाम दबाव बनाकर वहीं रखा गया और अवमूल्यन ज़्यादा हुआ, तो आगे चलकर उसके उत्पादक ग़ायब हो जाएँगे। उसी तरह डिग्री कॉलेजों की संख्या घटाई जाय और स्किल डेवलपमेंट के संस्थान बढ़ाये जाएँ। 
सरकार का काम नौकरी देना नहीं है, सरकार का काम रोज़गार लायक़ माहौल तैयार करना भर है। जिसके अंतर्गत माफियाओं का सफ़ाया, लाइसेंस राज का अंत, रोज़गार के लिए कम ब्याज पर लोन, कोई भी व्यापार करने के लिए सिंगल विंडो सिस्टम की व्यवस्था आदि आता है। यदि कोई ये कहता है कि गुड गवर्नेंस के बिना वह नौकरी और रोज़गार के अवसर बढ़ा सकता है तो वह झूठ बोल रहा है। 
इसी तरह ग़रीबी के विषय में सरकार का केवल इतना काम है कि कोई भी गरीब भूखा न मरे, किसी गरीब की स्थिति ऐसी न हो कि उसके सिर पर छत न हो, कोई गरीब चिकित्सा के अभाव में सड़क पर न मरे।
इसके अतिरिक्त सरकार का कोई और काम नहीं। प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है, समाज में हमेशा कुछ अमीर और ढेर सारे मिडिल क्लास और गरीब रहेंगे। जैसे जैसे समाज आगे बढ़ेगा ग़रीबी की परिभाषा अमीरी की तरफ़ शिफ्ट होती रहेगी। किसी को किसी का पैसा देकर अमीर नहीं बनाया जा सकता क्योंकि पैसे की क़ीमत उसी को मालूम होती है जिसने उसे अर्जित किया है। यदि पैसे और संसाधन बाटने से आर्थिक असमानता समाप्त होती तो एक पिता के दो संतानों में कभी भी आर्थिक असमानता नहीं होती। 
भारत में कांग्रेस के वामपंथी एजेंडे से सावधान रहें क्योंकि ये ग़रीबी हटाने के नाम पर आते हैं और आपको हर बार अधिक गरीब करके चले जाते हैं। नरसिंहा राव एकमात्र अपवाद हैं, इसीलिए कांग्रेसी उनका नाम नहीं लेते। 
वामपंथ से सावधान रहें, यह आपका कॉमन सेंस हरण करके आपको बर्बाद करते हैं। अतः दिमाग़ खुला रखें।

डॉ भूपेन्द्र सिंह 
लोकसंस्कृति विज्ञानी

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