पंथक दृष्टि वाला कभी भी हिंदू नहीं क्यो नही सकता।

मैं हमेशा कहता हूं कि धर्म आपको सहज करता है और पंथ आपको कुंठित कर देता है, फिर आपके अंदर विद्वेष और अलगाव की मनोवृति बढ़ती है और आपके अंदर उन विषयों को लेकर विभेद भरते हैं जो दरअसल कोई विषय ही नहीं होते हैं।

बुद्ध के बाद "वैशाली" बौद्ध मत का बहुत बड़ा गढ़ बन गया था। बौद्ध धर्म नहीं बल्कि मत था तो ये मनोवृति उनके लोगों में भी आनी ही थी और आई भी।

दस विषयों को लेकर विवाद छिड़ गया। विषय सुनकर आप हंसेंगे पर "पंथक वृति" जब अक्ल पर परदे डाल देती है तो यही होता है। विवाद के ये कुछ विषय थे - 

जानवर के सींग की खोल में क्या रास्ते के लिए नमक का संचय किया जाए या नहीं?

दूध अगर जमकर पूरा दही नहीं बना है तो उसे दही मानकर खाया जाए या दूध मानकर?

अगर पेट भर चुका हो तो क्या भिक्षा मांग सकते हैं?

कोई सुरा अभी पूरी तरह तैयार न हुई हो तो क्या उसे पी सकते हैं?

मेरे आचार्य ने जो कर्म किया हो, क्या हमें भी वही कर्म करना चाहिए?

ऐसे प्रश्नों पर पहले विवाद हुए फिर झगड़े शुरु हो गए और बौद्ध महासंगीतियां तत्वार्थ पर चर्चा की जगह झगड़ो में बदल गई और उन बौद्ध महासंगीतियों से ही बौद्ध मत अलग अलग उप-मतों में टूटने लग पड़ा।

जब भी आप अपने अंदर संकुचित दृष्टि रखेंगे तो उसकी अंतिम परिणति यही होनी है। पौराणिक और वैदिक के मतभेद, शैव और वैष्णव के मतभेद, जैन और श्रमण के मतभेद, सनातन और जैन के मतभेद, उदासी और खालसा के मतभेद ये सब पंथक वृति के नतीजे में जन्में। ये सब आपस में मूर्खतापूर्ण प्रश्नों पर गुत्थम-गुत्था करते रहे और धर्म तथा राष्ट्र कमजोर होता रहा।

पंथक दृष्टि वाला कभी भी हिंदू नहीं हो सकता। हिंदू होने की पहली और अंतिम शर्त ही है - विविधता का संरक्षण और उसका समादार। 

जो सही मायनों में हिंदू है उसे न तो वैष्णव तिलक लगाने में दिक्कत होती है न शैव त्रिपुंड......उसे बुद्ध भी अपने लगते हैं और महावीर तथा नानक भी। हिंदू दादू पंथी भी होता है, रैदासी भी, वो कबीर पंथी भी होता है और गौड़िय भी, उसे विवेकानंद भी रूचते हैं और दयानंद भी, उसे साकार की उपासना भी रूचता है और निराकार की उपासना भी। वो कांवर लेकर शिव को जल चढ़ाता है तो चित्रकूट के कामदगिरि की परिक्रमा भी कर लेता है और नवरात्र में व्रत भी रखता है, ये सब न भी करे तो भी उसके मन में इन परंपराओं के लिए आदर होता है।

ऐसा ही "हिंदू" बनिए, व्यर्थ के और निरर्थक प्रश्नों से बचिए, अपनी ऊर्जा को इस पूर्ण को और पूर्ण करने में लगाइए वरना भिक्षु संघ की तरह लड़ते लड़ते आप भी अपनी जन्मभूमि से उखड़ जायेंगे।

Abhijeet Singh 

(मेरी अगली पुस्तक #अमृत_कुंभ से)

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