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नालन्दा जो कि अशोक के समय से एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ था, इसके विश्वविद्यालय जैसे स्वरूप का निर्माण कुमारगुप्त शक्रादित्य ने करवाया था(414-445 ई0), जिसकी पुष्टि ह्वेनसांग करता है। कुमारगुप्त से पहले नालन्दा 'विश्वविद्यालय' जैसी विशेषता नहीं रखता था, इसीलिए चंद्रगुप्त द्वितीय के समय आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने इसके बारे में नहीं लिखा है। नालन्दा से गुप्तों और हर्ष के बाद आने वाले कन्नौज शासक यशोवर्मा के दान-अभिलेख भी मिलते हैं। नालन्दा राजकीय अनुदानों से चलने वाला संस्था था। ह्वेनसांग इसके खर्चों के लिए 100 तथा इतसिंग 201 गाँवों से मिलने वाले कर की बात करता है। साथ ही इसे धर्मनिष्ठ धनी वर्ग से खूब अनुदान भी मिलते थे। ह्वेनसांग लिखता है, इन गाँवों से प्रतिदिन सैकड़ों मन चावल और दूध-माखन बैलगाड़ियों से भरकर आता था। बनावट में आसपास के इन गाँवों से अलग नालन्दा एक मोटी चारदीवारी से बंद किलेनुमा बौद्ध महाविहार था। ।
नालन्दा पर पहला आक्रमण पाँचवी सदी में हूणों ने किया था जिसे जल्द ही ठीक कर दिया गया(महत्वपूर्ण है कि हूणों का पूरब अर्थात मगध की ओर आक्रमण कई सदियों तक होता रहा जो भारत में ही बस गए थे)। आठवीं सदी में बंगाल के गौड़ राजा के आक्रमण के दौरान भी नालंदा को काफ़ी नुकसान हुआ था। पुरातत्त्वविद एच.डी. सांकलिया अपनी पुस्तक, 'द यूनिवर्सिटी ऑफ़ नालंदा' में लिखते हैं:- क़िले जैसा परिसर और इसकी संपत्ति को लेकर फैली कहानियों के चलते आक्रमणकारी यहां हमले के लिए आकर्षित हुए होंगे(पुरातात्विक खुदाई में अनेक बौद्ध मठों से बहुमूल्य धातुएँ, सिक्के और सिक्के बनाने वाले साँचो की प्राप्ति हुई है, बौद्ध भिक्षु इतने धनी हो गए थे कि कई जगहों पर ये दान लेने की जगह दान दे रहें हैं, इसके शिलालेखीय साक्ष्य मौजूद हैं)।
इन दोनों हमलों के बाद नालंदा के इमारतों का पुनर्निर्माण किया गया। यहाँ तक कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के शासकों ने भी मठ बनवाए, अनुदान दिए। नालन्दा का पुनर्निर्माण केवल आक्रमणों के बाद ही नहीं हुआ बल्कि कई बार खाना बनाते समय या रोशनी के लिए जलाए गए दीपक/मशालों से आग लगने से भी हुआ(पुरातात्विक साक्ष्य हैं)।
महिपाल प्रथम(999 ई0) के एक शिलालेख में लिखा है: उसके ग्यारहवें शासन वर्ष में आग लगने से नालन्दा नष्ट हुआ जिसका मरम्मत वह स्वयं करवाता है।
आठवीं सदी बाद पाल राजाओं ने जब महायान केंद्र नालन्दा के बजाय खुद के द्वारा स्थापित वज्रयान बौद्ध केन्द्र/विश्वविद्यालय विक्रमशिला और सोमपुरा को राजकीय धन प्रदान करना शुरू कर दिया तब नालन्दा के अनुदानों में कटौती होने लगी। तिब्बती जनश्रुतियों के इतिहासकार तारानाथ(18 वीं सदी) ने लिखा है कि पाल राजाओं द्वारा विक्रमशिला के आचार्यों को अब नालन्दा का निरीक्षक नियुक्त किया जाने लगा, मतलब साफ है कि 12वीं/13वीं सदी के किसी अंतिम हमले से पहले ही नालन्दा का शैक्षिक महत्व घट चुका था। चीनी और तिब्बती सूत्रों से जानकारी पुष्ट होती है कि इस दौरान बौद्धों में तंत्रविद्या का घोर प्रचार हो गया था। इससे भी इसके अध्ययन सम्बंधित कार्यों का बहुत नुकसान हुआ, मठों में व्यभिचार बढ़ने लगे। इतसिंग के अनुसार यहाँ अनेक रसोईघर थे, जहाँ तांत्रिक देवता की लकड़ी की मूर्ति को तेल पिला-पिलाकर काला कर दिया जाता था। सबसे पहले भोजन का भोग इन्हें ही लगता था। भिक्षु धर्मस्वामीन ने तो दूध, दही और घी का भी जिक्र किया है बौद्ध और हिन्दू दोनों देवताओं को नहलाने के लिए।
नालन्दा के पतन पर अधिकतर इतिहासकार लिखते हैं: बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में आक्रमणकारियों की सैन्य टुकड़ी ने इस विश्वविद्यालय को 1200 ई0 के आसपास नष्ट कर दिया। साथ ही ऐसी बातें फैली हैं कि नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर इतना विशाल था कि हमलावरों के आग लगाने के बाद तीन महीने तक जलता रहा। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि नालन्दा को ब्राह्मणों ने जलाया।
इन दोनों आरोपों के को जांचने के लिए नालन्दा पर मूल स्रोतों को पढ़ना पड़ेगा।
इनमें तीन स्रोत मुख्य हैं पर उसके पहले यह जान लें कि नालन्दा के आखिरी कुलपति कश्मीरी भिक्षु शाक्यश्रीभद्र थे। जो विद्वानों के एक दल के साथ 1203-04 ई0 में सिक्किम के रास्ते तिब्बत की ओर रवाना हुए। इस विद्वमण्डली में मैथिली के आदिकवि विनयश्री भी थे जिन्होंने 84 सिद्धों की नामावली लिखी है, इसे राहुल सांस्कृत्यायन ने सासक्या मठ से प्राप्त किया था। इस मण्डली से ज्यादातर लोग तिब्बत में ही रह गए, कभी स्वदेश नहीं लौटे। कहने का आशय यह है कि नालन्दा विश्वविद्यालय पर जो सबसे बड़ा विध्वंस हुआ था वह 1200 ई0 के आसपास ही कभी हुआ था।
पहला स्रोत:- 1234-36 ई0 का तिब्बती स्रोत। बौद्ध भिक्षु धर्मस्वामीन का जीवनी। पुस्तक का तिब्बती नाम:- 'नाम-थार' अर्थात 'जीवन-कथा'। धर्मस्वामीन का मूल तिब्बती नाम:- 'चाग लोचबा चोरजेपाल'। 80 पृष्ठों की इस पुस्तक को राहुल सांस्कृत्यायन तिब्बत से लाये थे। मॉस्को के जॉर्ज जोरिख ने रूसी में अनुवाद किया फिर 1959 में अल्टेकर महोदय ने अंग्रेजी अनुवाद किया। 1234 में धर्मस्वामीन तिब्बत से भारत आये थे।
धर्मस्वामीन नालन्दा से पहले वज्रासन(बोधगया) पहुँचते हैं और वहाँ का हाल देखकर सन्न रह जाते हैं। तुर्कों के डर से मुख्य बुद्धमूर्ति को एक दीवार के पीछे छिपा दिया गया है। यहाँ के राजा बुद्धसेन(प्रसिद्ध सेनवंश से अलग राजा) तुर्कों के डर से जंगल में छिप कर रह रहे हैं। ध्यान दें कि तुर्कों के लिए धर्मस्वामीन ने कई जगह गरलोग(कारलुक) शब्द का इस्तेमाल किया है यानी वह तुर्कों से भलीभाँति परिचित थे कि ये वाले तुरुष्क(तुर्क) कौन हैं।
धर्मस्वामीन बताते हैं कि ओदन्ततपुरी विहार के विध्वंश के बाद तुर्क फौजों ने उसे अपनी छावनी बना ली है।
नालन्दा के बारे में धर्मस्वामीन बताते हैं; नलेन्द्र विहार(नालन्दा) की शोभा उजड़ने के बाद अब वहाँ 90 वर्षीय पण्डित राहुल श्रीभद्र चार अन्य शिक्षकों के साथ लगभग 70 छात्रों को पढ़ाते हैं। आचार्य राहुल श्रीभद्र को आर्थिक सहयोग शुरू में राजा बुद्धसेन की ओर से मिलता था, फिर आचार्य के शिष्य, उदंतपुरी के एक धनी ब्राह्मण जयदेव उनका और शिष्यों का खर्चा उठाने लगे।
बीच में तुर्क फौज ने जयदेव को गिरफ्तार कर लिया तो जेल से ही उन्होंने आचार्य के पास संदेशा भिजवाया कि नालन्दा पर दूसरा हमला होने वाला है, जल्दी वहाँ से निकल जाएं। आचार्य राहुल श्रीभद्र ने सारे शिष्यों को बाहर भेज दिया और खुद अपनी अधिक उम्र का हवाला देकर विहार में ही डटे रहे। उन्हें देखकर धर्मस्वामीन उन्हें साथ लिए बिना नालन्दा विहार से हिलने को राजी नहीं हुए।
काफी कहने-सुनने पर आचार्य अपने तिब्बती शिष्य(धर्मस्वामी) के कंधों पर सवार होकर बाहर निकले और निकलते-निकलते दोनों ने एक जाली से घुड़सवार तुर्क सैनिकों को महावीहार में प्रवेश करते देखा। गुरु-चेला के पास छिपने के लिए वहाँ एक जगह थी, 'ज्ञाननाथ मन्दिर'। जिसके बचने का कारण यह था कि कई साल पहले नालन्दा महाविहार पर हमले के समय उनकी मूर्ति(ज्ञाननाथ) पर प्रहार करने वाले सैनिक की उसी शाम पेट दर्द से मृत्यु हो गयी थी।
नालन्दा पर हुए इस दूसरे तुर्क हमले का विवरण धर्मस्वामीन नहीं देते। बस यह कहते हैं कि नालन्दा में एक वर्ष की शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनके गुरु कहते हैं-'तुम तिब्बत जाओ। मैं बूढ़ा हो चुका हूँ और तिब्बत दूर है। अब हमारी मुलाकात सुखावती(स्वर्ग) में होगी।'
(इसपर अधिक जानकारी के लिए चंद्रभूषण जी की पुस्तक 'भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म' पढ़ें)।
दूसरा:- लगभग 1240 ई0 दिल्ली सल्तनत का स्रोत।
“वह (बख्तियार खिलजी) उन हिस्सों और उस देश में अपने लूटपाट को तब तक ले जाता रहा जब तक कि उसने बिहार के किलेबंद शहर पर हमला नहीं किया। भरोसेमंद लोगों ने इस बाबत बतलाया है, कि रक्षात्मक बख्तर में उसने दो सौ घुड़सवारों के साथ बिहार के दुर्ग के प्रवेशद्वार पर चढ़ाई की, और एकाएक हमला कर दिया। मुहम्मद-ए-बख्तियार की खिदमत में फ़रग़ाना से आए दो भाई थे, ज्ञानवान, एक निज़ामुद्दीन, दूसरा समसमुद्दीन (नाम से); और जिससे इस पुस्तक का लेखक (मिन्हाज) लखनावती में हिजरी सन 641 में मिला था, और यह वृत्तान्त उसी का है। ये दो समझदार भाई मुजाहिदों की टुकड़ी का हिस्सा थे जब वह दुर्ग के प्रवेशद्वार पर पहुंची और हमला शुरु किया, जिस वक़्त मुहम्मद-ए-बख्तियार ने, अपनी बहादुरी के दम पे, अपने-आप को महल के प्रवेशद्वार के छोटे फाटक में झोंक दिया, और उन्होंने दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया और काफी माल हासिल किया(यानी बौद्ध मठ धन के अड्डे बन गए थे)। उस स्थान के निवासियों में अधिक संख्या ब्राह्मणों(भिक्षुओं को ब्राह्मण समझता है) की थी, और उन सभी ब्राह्मणों के सिर मुंडे हुए थे; और वे सब मारे गए। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं; और, जब ये सभी पुस्तकें मुसलमानों की निगरानी में आईं, तो उन्होंने बहुत से हिंदुओं को बुलाया ताकि वे उन्हें उन पुस्तकों के संबंध में जानकारी दे सकें; पर सारे हिन्दू मारे जा चुके थे। (उन पुस्तकों की सामग्री से) परिचित होने पर यह पाया गया कि किला और शहर एक कॉलेज था, और हिंदी भाषा में, वे कॉलेज को बिहार कहते हैं (तबक़ात-ए-नासिरी, अँग्रेज़ी अनुवाद एच जी रेवर्टी, पृ-551-552)।”
मिन्हाज सिराज जगह का नाम नहीं लिखता, कुछ इतिहासकार उसके विवरण के आधार पर इसे ओदंतपुरी बौद्ध मठ मानते हैं। स्पष्ट है कि बिहार के बौद्ध मठ धन के अड्डे थे, ये आक्रमणकारियों का निशाना जल्दी बन जाते थे।
इन दोनों स्रोतों के आधार पर सीधे-सीधे बख्तियार खिलजी पर आरोप नहीं लगाया जा सकता क्योंकि ये लेखक उसका नाम नहीं लिखते पर साफ शब्दों में मना भी नहीं किया जा सकता क्योंकि आक्रमणकारी तुर्क थे, ये सभी लिखते हैं और उस समय बिहार-बंगाल पर आक्रमण करने वाली तुर्क सैन्य टुकड़ी का नायक बख्तियार खिलजी था।
तीसरा:- अठारहवीं सदी के तिब्बती स्रोत, बौद्ध भिक्षु तारानाथ और भिक्षु सम्पा खान-पो दोनों तुर्की आक्रमण के बाद नालन्दा के फिर जीर्णोद्धार की बात करते हैं और ब्राह्मण साधुओं से झगड़े के बाद नालन्दा नष्ट होने का दावा करते हैं। लेकिन 1660 ई0 में आने वाले फ्रांसीसी यात्री बर्नियर को 10 साल से अधिक भारत यात्रा के दौरान भी बौद्ध धर्म के बारे में कुछ पता नहीं चलता है इसलिए यह झगड़ा कब हुआ था या असल में ऐसा कुछ हुआ भी था या बस ब्राह्मण-बौद्ध द्वेष के कारण लिखा गया है, निश्चित कहा नहीं जा सकता।
पढ़िए उनका उध्वरण।
'नालेन्द्र (नालंदा) में काकुत्सिद्ध द्वारा बनवाए गए मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के दौरान “कुछ शरारती युवा श्रमणों ने दो तीर्थिक भिक्षुओं(ब्राह्मणों को तिर्थिक कहता है) पर गंदा पानी फेंका और उन्हें कपाटों के पीछे दाबे रखा और उन पर खतरनाक कुत्ते छोड़े।” इससे क्रुद्ध होकर उनमें से एक रोजी-रोटी का जुगाड़ करने चला गया और दूसरा एक गहरे खड्ड में बैठकर “सूर्य साधना में रत हो गया”, पहले नौ साल तक और तत्पश्चात तीन और साल तक और इस प्रकार “मंत्रसिद्धि प्राप्त” कर उसने “एक हवन किया और अभिमंत्रित भस्म चहुंओर फैला दी” जिससे “तुरंत ही चमत्कारिक रूप से अग्नि उत्पन्न हुई,’’ जिसने सभी चौरासी मंदिरों और ग्रंथों को अपनी चपेट में ले लिया जिसमें से कुछ ग्रंथ फिर भी नौमंज़िला रत्नोदधि मंदिर की सबसे ऊपरी मंजिल से बहने वाले जल के कारण बच गए।' (हिस्ट्री ऑफ़ बुद्धिज़्म इन इण्डिया, अंग्रेज़ी अनुवाद लामा चिमपा और अलका चट्टोपाध्याय, पृ. 141-42 का सारांश)।
इसके आधार पर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि ब्राह्मणों ने नालन्दा में आग लगाई जिससे यह अतंतः जलकर नष्ट हो गया। लेकिन ऐसा लिखने वाले इतिहासकार तेरहवीं सदी के स्रोतों को ज्यादा भाव न देकर अठारहवीं सदी के स्रोतों को आगे ले आते हैं। फिर भी बहुत बाद की यह तिब्बती किवंदती नालन्दा को जलाने में ब्राह्मणों का हाथ बताते समय चमत्कारी बातें करती हो पर इस बात को बल जरूर मिलता है कि ब्राह्मण-बौद्ध द्वेष सेन वँशी शासन के दौरान काफी बढ़ चुका था। क्योंकि ब्राह्मण वँशी सेन राजाओं(1095- 1205) ने अपने शासनकाल में कुलीनवादी सामाजिक आंदोलन चलाने के साथ रूढ़िवादी ब्राह्मण-हिन्दू प्रथाओं को काफी आश्रय दिया था। अंतिम पाल शासक भी ब्राह्मण-हिन्दू धर्म की तरफ झुक चुके थे। रामपाल (1077-1026) के आश्रित कवि संध्याकर नंदी ने तो 'रामपालचरित' में खुद को कलयुग का वाल्मीकि और रामपाल को कलयुग का राम कहा है।
बाकी गर बौद्ध धर्म के पतन में ब्राह्मणों का योगदान देखना ही है तो यह शुरुआत से ही देखना चाहिए क्योंकि प्राचीनकाल में ब्राह्मण-हिन्दू धर्म का सबसे प्रतिस्पर्धी धर्म बौद्ध धर्म ही था। लगभग 1000 सालों तक बौद्ध धर्म की स्थिति मजबूत थी। इसमें भी ब्राह्मणों का योगदान है क्योंकि अधिकाँश प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु-विद्वान ब्राह्मण वर्ण(ब्राह्मण वर्ण पर कंफ्यूज न हों क्योंकि पहली शताब्दी के शिलालेखों के आधार पर यह साबित होता है कि भारत के अधिकाँश भागों में वर्णव्यवस्था फैल चुकी थी, ख़ासकर उच्च/शहरी/राजकीय क्षेत्रों में) के थे। ब्राह्मण साहित्य में बौद्धों को अपशब्द कहना इसी प्रतिस्पर्धा/नफरती नजरिया का अंग था। पालकालीन मूर्तिकला में बौद्धों का हिन्दू देवताओं के प्रति नफरती भाव तो प्रत्यक्ष दिखता ही है। तुर्कों के आक्रमण से बहुत पहले भी, आठवीं सदी से पुरातात्विक सबूत बौद्ध ठिकानों पर हुए छुटपुट हमलों का संकेत देते हैं। क्या ये हमलावर हूण या बाहरी थे या कोई स्वदेशी? यह शोध का विषय है, जानकारियाँ इकट्ठा कर लूँ फिर लिखूँगा।
12/13 वीं सदी के अंतिम हमले के बाद नालंदा धीरे-धीरे गुमनामी में डूबता गया क्योंकि 1250 ई0 में बिहार और नालन्दा दिल्ली सल्तनत के कब्जे में थे। इसलिए अब इसका बौद्ध विश्वविद्यालय रह जाना कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता। 1812 में स्कॉटिश सर्वेक्षक फ्रांसिस बुकानन-हैमिल्टन ने इसके बारे में पता लगाया और बाद में 1861 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इन अवशेषों की पहचान प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में की, उससे पहले यह छः सदियों तक गुमनामी के गर्त में डूबा रहा(इसी के साथ भारत में बौद्ध धर्म भी)।
इन तमाम ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि नालन्दा का अंत एकाएक न हुआ और न ही इसका कोई एक कारण था। इसके पीछे के कारणों में था:- पाल राजाओं के बाद राजकीय आश्रय और अनुदानों की कमी, सेन वँश के दौरान बिहार में ब्राह्मण धर्म को अधिक अवसर प्रदान करने के साथ बौद्ध भिक्षुओं का उत्पीड़न, तुर्क आक्रमण और उनका विध्वंश, दिल्ली सल्तनत का बिहार पर कब्जा आदि। ठीक इसी तरह भारत में बौद्ध धर्म के पतन को भी समझा जा सकता है, कई इतिहासकारों ने लिखा भी है कि नालन्दा का पतन एक तरह से भारत में बौद्ध धर्म का पतन था।
नालन्दा और बौद्ध धर्म के पतन को समझने के लिए पिछले 1-2 महीने के सभी पोस्ट पढ़ें।
#नालन्दा_विश्वविद्यालय
साभार
Ankit Jaiswal जी
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