हिंदू आर्थिक चिंतन क्या कहता है?

#हमारा_अर्थ_चिंतन 

हिंदू अर्थव्यवस्था इतनी सुंदर थी कि जो चीज जहां उत्पादित होती थी अथवा आवश्यकता की होती थी वो वहीं खप जाती थी। उपभोक्ता और उत्पादक दोनों एक ही जगह बसाए गए थे इसीलिए हर हिंदू बाहुल्य वाले गांव में मोची, दर्जी, सोनार, लोहार, बड़ई, नाई, कुम्हार, ग्वाला, जुलाहा, तेली, पुरोहित, रंगरेज, मिस्त्री, कुआं खोदने वाले, छप्पड़ साजने वाले और माली के घर होते थे।

भले बदलाव हुआ है तो भी आज आपको गांव के अंदर ये व्यवस्था दिख ही जायेगी। नाई ने आपके बाल बनाये, बदले में आपने उसे अनाज दे दी। ग्वाले ने दूध दिया आपने उसे बदले में पुआल दे दी। ये पारस्परिक सहयोग और संबंध सामाजिकता को मजबूत करती थी।

विवाह अथवा उत्सव पर बाहर से कैटरर नहीं बुलाने पड़ते थे। गांव के लोग ही रसोइया और भोजन परोसने वाले बन जाते थे। माता का जगराता या किसी धार्मिक आयोजन के लिए भी किसी डीजे वाले को नहीं बुलाना पड़ता था बल्कि गांव में ही ऐसे विषयों के एक्सपर्ट हुआ करते थे। गांव में ही हाट लगता था जहां दैनिक उपयोग से लेकर सब्जी और खाने पीने की हर सामान मिल जाया करती थी। चूड़ी, साड़ी और बिंदी की सप्लाई माथे पर रखकर बेचने वाले आपके घर तक आते थे।

यही कारण था कि लंबे समय तक के विदेशी आक्रमण और शासन ने भी गांव के अर्थ तंत्र को तोड़ने और भेदने में सफलता नहीं पाई थी।

हिंदू अर्थ चिंतन आधुनिक परिभाषाओं में भले जीडीपी न बढ़ा पाये पर आर्थिक सुरक्षा का अभेद कवच था। आज भी इस मॉडल का सफल इंप्लीमेंटेशन सब ठीक कर सकता है पर जीडीपी वालों को ये बात समझ नहीं आयेगी।

संघ विचार परिवार में केo सुदर्शन अंतिम थे जो इस मॉडल के सबसे बड़े पैरोकार थे अब तो शायद कोई इसकी चर्चा भी नहीं करता।

भक्ति भक्ति

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