भागीरथी तट पर एक ग्राम में स्वामी ध्यानानन्द जी का आश्रम था । यह आश्रम धन-धान्य से पूर्ण था ।

.                       

        भागीरथी तट पर एक ग्राम में स्वामी ध्यानानन्द जी का आश्रम था । यह आश्रम धन-धान्य से पूर्ण था ।
          उस ग्राम में एक साधु आये। उनके पास एक झोली थी, जिसमें कुछ फल-मेवा इत्यादि थे। वे साधु ग्राम के प्रत्येक घर के द्वार पर पहुँचते और राधाकृष्ण की धुन लगाते, लोग बाहर निकलकर आते और भिक्षा देने लगते। किंतु महाराज भिक्षा न लेते हुए, झोली में से निकालकर सबको फल इत्यादि वितरण कर देते। साधु के चेहरे पर तेज था, शान्ति थी और प्रेम का नि:स्पृह प्रकाश था। साधु गंगातट पर निवास करने लगे। ग्राम के लोगों की उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति का अविरल प्रवाह बहने लगा ।

स्वामी ध्यानानन्द के मन में एक प्रश्न बार-बार उठता कि नये साधु के प्रति लोगों का इतना आकर्षण तथा सम्मान क्यों है, एक दिन स्वामीजी साधु महाराज से एकान्त में यह प्रश्न कर ही बैठे। साधु महाराज ने कहा– आपके प्रश्न का उत्तर मिलेगा कभी 
          एक दिन साधु महाराज ने स्वामीजी को चलने के लिये कहा .दिन भर यात्रा करते रहे। धधकती ग्रीष्म ऋतु की चिलचिलाती धूप में जनविहीन तथा चरण-चिह्न-विरहित अरण्य के बीच यात्रा हो रही थी। स्वामीजी ने कहा– महाराज! कहीं विश्राम करना चाहिये।' ‘

स्वामीजी भूख और गरमी से व्याकुल हो रहे थे। साधु ने कहा–मैंने अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया है। जब वे विश्राम देंगे, तब विश्राम करूँगा। मैं भिक्षा भी नहीं माँगता, जब वे खिला देते हैं, तब ग्रहण कर लेता हूँ। सूर्यास्त होने लगा। अन्धकार की चादर का फैलाव बढ़ने लगा। इसी समय एक व्यक्ति ने सामने से आकर साधु महाराज को प्रणाम किया और कहा–'महाराज! इस अन्धकार में आप कहाँ जा रहे हैं, मेरे यहाँ रात्रि में विश्राम कीजिये।'
          साधु और स्वामीजी उसके साथ चल दिये। वह एक टीले की तरफ बढ़ने लगा। उस टीले पर उसका निवास था। वहाँ ले जाकर उसने साधु तथा स्वामीजी को अच्छा आसन दिया, सब प्रकार की सुविधा दी तथा भोजन करवाया। उस टीले के चारों ओर घनी वनमाला फैली हुई थी। क्षितिज पृथ्वी से आलिंगन कर रहा था। सब दृश्य अन्धकार में विलीन हो रहे थे।
          साधु महाराज बोले–'देखो, इस गोलाकार क्षितिज के उस पार सूर्यभगवान् ने पदार्पण किया है, उनके जाते ही अन्धकार ने अपने पैर फैला दिये हैं। क्या यह अन्धकार कोई सत्ता रखता है ? क्या इसे कोई निकालकर बाहर कर सकता है। यह तो केवल प्रकाश का अभाव है। प्रकाश के आते ही अन्धकार नहीं रहता। यही बात प्रभु–विश्वास के सम्बन्ध में है। प्रभु–विश्वास का प्रकाश सब प्रकार के अभाव के अन्धकार को दूर कर देता है। जब तक हम वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति में विश्वास करते हैं, तब तक हमें अभाव, अतृप्ति, दुःख, निराशा घेरे रहते हैं, जो हटाये नहीं जा सकते, भोजन करने से तृप्ति होती है, यह भ्रमात्मक है; क्योंकि वह तृप्ति ठहरती नहीं, फिर अतृप्ति आ घेरती है। किंतु प्रभु–विश्वास से, प्रभु–समर्पण से अतृप्ति, अभाव सदा के लिये चले जाते हैं। वस्तु, पदार्थ मिलें या न मिलें, शान्ति का साम्राज्य विशाल अपरिच्छिन्न आकाश की भाँति कभी नहीं छोड़ता।'
          साधु महाराज चुप हो गये। उनकी उस मूकता में आनन्द की छटा मूक नक्षत्रों की छटा के समान छिटक रही थी।  

साधु महाराज ब्राह्ममुहूर्त में उठ खड़े हुए और उन्होंने स्वामीजी से चलने के लिये कहा। आतिथेय महोदय भी आ गये। उन्होंने कुछ दिन विश्राम करने के लिये आग्रह किया। स्वामीजी का भी आग्रह था–एक दिन वहाँ विश्राम किया जाय। सुन्दर भोजन, दूध, मीठा जल तथा सब सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध थीं; किंतु साधु ने कहा–'नहीं चलना ही होगा।' आगे का पथ कठिन था, कुछ भी प्राप्य न था। आगन्तुक ने कहा–'थोड़ा भोजन लेते जाइये;' किंतु साधु महाराज ने कहा 'संग्रह सर्वथा त्याज्य है, संग्रह प्रभु- विश्वास में विघ्न है। केवल प्रभु–विश्वास ही जीवन का सहारा होना चाहिये। '
          साधु तथा स्वामीजी यात्रा पर निकल पड़े। आगे का प्रदेश मरुस्थल था। बालू के कण उड़-उड़कर शरीर को आच्छादित कर देते थे। मरुस्थल की प्रचण्ड ऊष्मा, जलविहीन धरा ने स्वामीजी को विकल कर दिया। साधु महाराज भगवान् के नाम का उच्चारण करने लगे। प्रगाढ़ अन्धकार ने फिर घेरा डाल दिया–यात्रा असम्भव हो गयी। साधु तथा स्वामीजी एक वृक्ष के नीचे ठहर गये।
          दूर एक टिमटिमाता प्रकाश आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। वह प्रकाश उसी वृक्ष की ओर आ रहा था। एक बूढ़ा एक लालटेन लिये आ गया। उसने उन्हें देखकर पूछा–आप भूखे-प्यासे जान पड़ते हैं, थोड़ा भोजन कर लीजिये।' उसने कुछ भोजन दिया तथा जल पिलाया। उसके पास लोटे में जल था और थैली में सूखा भोजन। स्वामीजी को पृथ्वी पर सोने से नींद नहीं आयी। किंतु साधु महाराज खूब सोये और उष:काल में उठ खड़े हुए।
          मरुस्थल में उष:काल में अनुपम सौन्दर्य होता है। क्षितिज के नीचे से प्रकाश ने फूटकर निर्मल आकाश को लालिमायुक्त कर दिया। ‘

साधु महाराज बोले–'जिस प्रकार निर्मल आकाश में लालिमा की भ्रान्ति हो रही है, उसी प्रकार हमारे निजस्वरूप आत्मा में भ्रान्ति से सीमित अहं का भास हो रहा है। आकाश अनन्त है, अपरिच्छिन्न है, उसका वारापार नहीं है। लालिमा तो उससे बहुत नीचे है और वास्तव में नहीं, केवल प्रतीतिमात्र है। सूर्य निकलने पर कहीं लालिमा का पता नहीं लगता। वास्तव में होती तो तब भी रहती। इसी प्रकार सीमित अहं भी अवास्तविक है, जाग्रत् में भासित होता है और फिर विलीन हो जाता है।
          साधु महाराज और स्वामीजी यात्रा पर चल दिये। साधु ने पूछा–'स्वामीजी! आपको प्रश्न का उत्तर मिला कि नहीं?' स्वामीजी ने कहा–'महाराज मिल गया, मैंने आश्रम बनाकर धन-धान्य-सामग्री का संग्रह करके प्रभु–विश्वास खो दिया। जब मैं आया था, प्रभु–विश्वास था, लोगों ने सम्मान दिया और सब कुछ दिया। मैंने संग्रह किया और प्रभु से दूर हो गया। मैंने सोचा कि मेरे पश्चात् आश्रम चलाने के लिये धन की आवश्यकता होगी। धन नहीं रहेगा तो आश्रम बन्द हो जायगा। मैंने प्रभु पर विश्वास न करके धन में विश्वास किया। यह मेरी बड़ी भूल थी। अब मैं संगृहीत सब धन सेवा में व्यय करके प्रभु पर ही आश्रित रहूँगा।'
          साधु ने कहा–'स्वामीजी! सम्मान चाहने से नहीं मिलता। सम्मान जगत् की सेवा तथा प्रभु में भक्ति से स्वत: प्राप्त होता है। पर सम्मान में कभी भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये।' स्वामीजी ने कहा–आपको प्रभु की अनन्य भक्ति कैसे प्राप्त हुई?
          साधु ने कहा–'में जिज्ञासु था, ब्रह्मसाक्षात्कार मेरा लक्ष्य था। विचार, मनन तथा निदिध्यासन से मैंने ब्रह्म का साक्षात्कार किया। एक समय मैं मीरा का जीवन-चरित्र पढ़ रहा था, उसमें मैंने पढ़ा कि मीरा ने अनन्त रस की प्राप्ति की। मीरा ने एक प्रभु से नाता जोड़ लिया, वह अर्धरात्रि को बिखरे हुए नक्षत्रों की छाया में महल से निकल पड़ी। 

प्रभु के गीत गाती हुई, निर्जन प्रदेश में भ्रमण करती हुई वृन्दावन पहुँची। वहाँ सुमधुर गीतों से, अनोखे नृत्यों से वह श्रीकृष्ण का आह्वान करने लगी। वहाँ से फिर कृष्ण से साकार भेंट के लिये द्वारका पहुँची, वहीं श्रीकृष्ण से उसका सशरीर मिलन हुआ। नित-नव रसका संचार हुआ और परम रस की उपलब्धिकर वह श्रीकृष्ण से अभिन्न हो गयी। मीरा के जीवन से मुझे एक प्रेरणा हुई कि श्रीकृष्ण के रूप में सविशेष ब्रह्म के दर्शन करूँ।'
          'अर्धरात्रि को पूर्णचन्द्र की श्वेत किरणें समस्त धरातल को स्नान करा रही थीं। उस समय गंगा की लहरों से गीत-गोविन्द की मधुर तानें सुनायी दे रही थीं। मैं अपने को भूल गया। किसी ने कहा–'वृन्दावन जाओ, वहाँ तुम्हारा श्रीकृष्ण से साक्षात् मिलन होगा।' मैं वृन्दावन आया और यमुना-तट पर बैठ गया। रात्रि के एकान्त में एक श्वेत वस्त्र धारण की हुई महिला दिखायी दी। उसने मुझे देखकर कहा कि 'तू कौन है, यहाँ क्यों बैठा है ? चला जा ?' मैंने महिला को प्रणाम किया और विनीत शब्दों में कहा–'मैं प्रेम-पंथ का पथिक हूँ, श्रीकृष्ण से मिलने के लिये आया हूँ।' महिला ने कहा–'यदि तू श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहता है तो श्रीकृष्ण के किसी विग्रह के रूप में उनका ध्यान कर, यों बैठे रहने से उनके दर्शन नहीं होंगे।' मैंने कहा–मैं ध्यान के द्वारा श्रीकृष्ण के मानस रूप के दर्शन नहीं करना चाहता, मैं तो उनके उस स्वरूप का दर्शन चाहता हूँ, जिस शरीर से उन्होंने लीला की थी।'
          महिला ने कहा–'ऐसा नहीं होगा, तू यहाँ से चला जा।'
          'मेरी आँखों से अश्रुधारा का प्रबल वेग उमड़ पड़ा।' महिला बोली–अच्छा, तू यहाँ से कुछ दूर चला जा और वहाँ से चुपचाप कृष्ण के दर्शन कर लेना।' मैंने कहा–'मैं केवल दर्शन ही नहीं चाहता, मैं उनके चरणों का स्पर्श, उनकी मधुर वाणी का श्रवण, उनके शरीर का सौरभ तथा उनके प्रसाद का रस भी प्राप्त करना चाहता हूँ, ताकि प्राकृतिक शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से सदा के लिये मुक्त हो जा

विषयरूपी शब्द, रस, रूप, स्पर्श तथा गन्ध से कभी तृप्ति नहीं होती; क्योंकि क्षणिक तृप्ति के पश्चात् फिर अतृप्ति आ जाती है। किंतु श्रीकृष्ण के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की सदैव उपलब्धि होगी; क्योंकि वह दिव्य-अलौकिक है।' महिला ने कहा–'ठीक है।'
          'रात्रि का समय था। यमुना का कलरव सुनायी देता था। प्रकृति निस्तब्ध थी। नक्षत्रों का झिलमिला प्रकाश पृथ्वी पर पड़ रहा था। दूर से बाँसुरी का शब्द सुनायी दिया और देखते-देखते श्रीकृष्ण आ गये। उनके मुख की शोभा अवर्णनीय थी। माधुर्य फूट-फूटकर बह रहा था। उनके शरीर से एक ज्योति निकल रही थी। मैंने चरण-स्पर्श किया। उन्होंने माखन अपने हाथ से मेरे मुख में दे दिया और वे अदृश्य हो गये।'
          इतना कहकर साधु मूक हो गये स्वामीजी भी मूक हो गये। ग्राम निकट आ गया। स्वामीजी ने साधु के चरणों की धूलि अपने मस्तक पर लगायी

🔥⚔️🔥जय श्री राम 🔥⚔️🔥

टिप्पणियाँ