संजय वन से लौटकर दुर्योधनादि कौरवों से पाण्डवों का सन्देश बताते हुए एक अंतरंग प्रेम की बात सुनाते हैं।

संजय वन से लौटकर दुर्योधनादि कौरवों से पाण्डवों का सन्देश बताते हुए एक अंतरंग प्रेम की बात सुनाते हैं। 
          धृतराष्ट्र के पास बैठकर संजय कहते हैं कि 'महाराज ! कौरवों की विजय नहीं होगी। मैंने एक दृश्य देखा है और उसे देखकर मेरे मन में यह निश्चय हो गया है कि दुर्योधन हारेंगे।' 
          महाराज !' श्रीकृष्ण ने मुझ पर बड़ी कृपा की कि मैं संदेश सुनाने के लिये उनके महल के उस अन्त:पुर में जा सका जहाँ अभिमन्यु, नकुल, सहदेव और प्रद्युम्न भी नहीं जा सकते। अपने पैरों की अंगुलियों को देखता, डरता हुआ मैं जब महल के अन्त:पुर में पहुँचा तो वहाँ की झाँकी देखकर दंग हो गया। 
          वहाँ एक सुन्दर आसन है जिस पर श्रीकृष्ण पैर फैलाये बैठे हैं। सामने पैर नीचे किये अर्जुन बैठे हैं और अर्जुन की गोद में श्रीकृष्ण के दोनों पैर हैं। अर्जुन के पैर नीचे लटक रहे हैं और नीचे दो चौकियाँ हैं जिनमें एक पर महारानी सत्यभामा बैठी हैं और दूसरी पर द्रौपदी। 
          अर्जुन का एक पैर सत्यभामाजी की गोद में है और दूसरा पैर द्रौपदीजी की गोद में। जरा इस झाँकी का ध्यान करिये। जब मैंने इनका इतना एकात्म और आपस की इतनी पवित्र प्रेम भावना देखी तो मैंने सोच लिया कि कौरव नहीं जीतेंगे। भगवान् इतने आत्मीय हो जाते हैं। 
          भगवान् श्रीकृष्ण जब पाण्डवों के दूत बनकर दुर्योधन के यहाँ गये तो इनके स्वागत की बड़ी तैयारियाँ हुईं। मार्गों पर सुगंधि छिड़काव हुआ, बन्दनवार बाँधी गयी, तोरणद्वार बने, महल सजाये गये। इनका बड़ा स्वागत हुआ। 
          जब वहाँ से निकलने लगे तो दुर्योधन ने भोजन के लिये कहा। इस पर इन्होंने मना कर दिया। दुर्योधन के मन में ठेस लगी। उसने कहा–‘आप भोजन क्यों नहीं करेंगे ?’ 
          भगवान् बोले–‘महाराज ! मैं दूत के काम से आया था, काम हो जाता तो खाता। वह तो हुआ नहीं और दूसरी बात यह कि भोजन दो प्रकार से होता है। 
          एक, या तो मनुष्य विपत्ति में पड़ा हो, भूख से मरता हो तो जहाँ जैसा मिल जाय उसे लेकर पेट भर ले और दूसरा, जहाँ प्रेम हो, अपना घर हो तो घर में घुसकर खा ले। ‘

यहाँ मैं भूख से मर नहीं रहा और प्रेम तुम में है नहीं, इसलिये मैं नहीं खाऊँगा।' 
          तुम्हारे भाई पाण्डव मेरे अपने हैं। मैं उनके लिये आया था। लेकिन तुम पाण्डवों के विरोधी हो। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि पाण्डवों का विरोधी मेरा विरोधी है और पाण्डवों का मित्र मेरा मित्र है।’ 
          राग-द्वेष शून्य भगवान् अपने मुख से ऐसे शब्द कहते हैं। भगवान् इतने अपने हो जाते हैं और अपने भक्त विदुर के घर जाकर साग खाते हैं ।

🔥⚔️🔥जय श्री राम 🔥⚔️🔥

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