आचार्य शङ्कर पीठ विवाद:- सामान्यतः शंकर पीठ की मान्यता को लेकर नव बौद्धिष्ट और विज्ञानवादी कभी एकमत नहीं रहते। वे सदैव शङ्कर पीठ की मान्यता को नकारते आये हैं

आचार्य शङ्कर पीठ विवाद:-
                         सामान्यतः शंकर पीठ की मान्यता को लेकर नव बौद्धिष्ट और विज्ञानवादी कभी एकमत नहीं रहते। वे सदैव शङ्कर पीठ की मान्यता को नकारते आये हैं। जबकि तथाकथित बुद्धूजीवी पीढ़ियाँ जो अपने बाप के सिवाय एक और बाप बना रखी हैं, वे बताती हैं कि "आचार्य शंकर पीठ की मान्यता तथाकथित रूप से अर्थात अंग्रेजी गुलामों द्वारा बनायी गयी संस्था जो भारतीय संस्कृति और परम्परा पर नियंत्रण पाने के लिए लगभग 120 वर्ष पूर्व खड़ी की गयी थी, उनके आश्रितता पर निर्भर करती है। जिसमें से एक ऐसी ही तथाकथित संस्था है #काशी_विद्वतपरिषद।
इसी कारण हमारे द्विबाप की औलादें अक्सर आचार्य शंकर पीठ की मान्यता को 120 वर्ष पूर्व की ही जानती आयी हैं।
जबकि धरातलीय रूप से देखा जाए तो, 
अभिनव शङ्कर जिन्हें हमारे धूर्त और वामी इतिहासकारों ने #आदिशंकराचार्य घोषित किया, वे भी 8वीं सदी के सिद्ध होते हैं। अगर उन्हें भी नकार दिया जाय तब भी विद्यानगर(वर्त्तमान विजय नगर) के संस्थापक आचार्य #विद्यारण्य सरस्वती जी विरचित #शंकर_दिग्विजय भी कम से कम 120 वर्ष से बहुत पुराना लगभग 300 वर्ष और पीछे ही सिद्ध करता है। फिर इन द्विबाप की औलादों का यह मत कहाँ से आया कि पीठ मात्र 120 वर्ष पुरानी परम्परा है?
अपने आप में विचारणीय है।

अब बात आती है, शंकर पीठाधीश्वर के कर्तव्यों की बात:-
          जैसा कि #परम्परा के जनक ऋषि #देवर्षि_नारद जी बताते हैं कि, "आचार्यकुल की मर्यादा की स्थापना करना ही किसी भी परम्परा के अधिपति अर्थात पीठ और उसके पीठाधीश्वर का दायित्व समझा जाता है।" अगर सामान्य भाषा में कहूँ तो, "जीवन्त शास्त्र बनकर संशयों का त्राण करना" समस्त आचार्यों का जिस प्रकार कर्त्तव्य है उसी प्रकार आचार्यों की मर्यादाओं की रक्षा करना पीठाधीश्वर का कर्त्तव्य जाना जाता है।
यही कारण है कि,
                        भारतीय संस्कृति में किसी भी पीठाधीश्वर को विस्थापित करके उसके पद को प्राप्त करने का उद्यम आज तक इतिहास में जाना न गया। क्योंकि जहाँ एक आचार्य जीवन्त शास्त्र मर्यादा का निज आचरण में धारणा द्वारा आमजन का प्रतिमान बनकर उन्हें अनुशरण का प्रेरणादायक बनता है वही पीठाधीश्वर समस्त आचार्यों के लिए प्रतिमान बनकर अपने आचरण से उनका मार्गदर्शन करता है, उनका प्रेरणास्रोत बनता है।

निज कर्त्तव्य और मर्यादा आरुढता की ऐसी झलक की उपस्थिति के कारण ही हमारी शास्त्रीय परंपरा में सपष्ट जिक्र कहीं भी इस विषय परिपेक्ष्य में नहीं मिलता कि, उन्हें किस प्रकार विस्थापित किया जाय।
जबकि लोक परम्परा में ही किसी भी पीठासीन के विस्थापन का स्पष्ट जिक्र देखने को मिलता है। अर्थात जो निज कर्त्तव्य और मर्यादा अनुपालना में अक्षम हो जाये, उसे निज कर्त्तव्य और आचरण के लिए सपष्ट चुनौती देते हुए किसी भी काल विस्थापित किया जा सकता है। 
बशर्ते विस्थापित करने वाला निज कर्त्तव्य और आचरण से लोक का प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में सक्षम हो।

आगे बात आती है तत्कालीन घटना क्रम की:-
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी का विवादों में घिरा होना-
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद जिसकी स्थापना 1954 में हुई, उसके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके यह माँग की जाती है कि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी को ज्योतिष पीठ का उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता।
(ध्यातव्य हो, यह अखाड़ा परिषद जो स्वयं ही परम्परागत नहीं, वह एक अपरम्परागत साधन अर्थात संविधान का सहारा किसी परम्परा में हस्तक्षेप के लिए किस प्रकार यथेष्ट है, भगवान ही जानें)
उसके बाद एक अन्य विवाद देखा जाता है उनके जातीय स्थिति को लेकर।
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी को पुरी जी महाराज #ब्रह्मभट्ट घोषित करते हैं, वही एक ना मालूम किस पीठ के आचार्य वासुदेवानंद जी भी बिनु प्रमाण ही उन्हें #अब्राह्मण घोषित कर देते हैं।
जबकि न ही परंपरागत और न ही संवैधानिक ऐसा कोई साक्ष्य प्रस्तुत आज तक किया जा सका न पुरी जी महाराज की तरफ से और न ही वासुदेवानंद जी की तरफ से।
संविधान भी अब तक अक्षम रहा है ऐसा कोई साक्ष्य देने में, जो यह सिद्ध करता हो कि "स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ब्राह्मण नहीं बल्कि ब्रह्मभट्ट हैं"
(यथार्थ में ब्राह्मण होने या न होने की स्थिति की जानकारी वेदत्रयी विद्या और त्रिपदा परीक्षण विधि से अब तक परम्पराएँ करती आई हैं। ऐसी किसी भी स्थिति में जिससे यथारूप सत्य का बोध हो जाता है। यह उच्च मनोविज्ञान की सर्वश्रेष्ठ विधाओं में से एक प्रणाली हैं।)

अब बात आती है स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी का कांग्रेसी प्रेम:-
          फेकबुकिया जमात कांग्रेसी जमात को पूर्णतः #राष्ट्रद्रोही घोषित कर रखा है, जिसकी मान्यता अनुसार भारत में वर्त्तमान में लगभग 37% ही #राष्ट्रवादी शेष हैं, अन्य सभी राष्ट्रद्रोही हैं। अगर दूसरे शब्दों में कहूँ तो,
#भाजपा के अनुयायी ही भारत में राष्ट्रवादी है शेष सभी राष्ट्रद्रोही। अन्य कोई पैमाना बचा ही नहीं।
ऐसी स्थिति में आचार्य शंकर पीठ जो #परम्परा_रूप होने के कारण #समांतर सत्ता की बात करती है, उसका राष्ट्रद्रोही होना तो सिद्ध ही है। इसमें किंचित भी संशय है ही कहाँ?
इसलिए इस विषय पर बात व्यर्थ है।
अब बात करती हूँ, यथार्थ में राष्ट्रद्रोही और धर्मद्रोही शास्त्र सम्मत या व्यवहार(धर्म सम्मत) मान्य कौन है?
इसका सीधा सा उत्तर है, जो #परम्परामें निष्ठावान नहीं, वह धर्मद्रोही या नास्तिक समझा गया है, और जो राष्ट्र को मात्र भौगोलिक इकाई के रूप में रेखांकित करके उसे पददलित करने की मंशा रखने वाला है, वह राष्ट्रद्रोही।
क्योंकि न राष्ट्र भौगोलिक इकाई है, और न ही राष्ट्र को भौगोलिक इकाई के रूप में विजित किया जा सकता है।
बल्कि एक राष्ट्र वह है, जो धर्म शाषित प्रदेश के रूप में देखा जाता है।

जिसके कारण आज तक एक भी वक्तव्य ऐसा न जाना जा सका जो स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी को राष्ट्रद्रोही सिद्ध करता हो।
बल्कि उनकी धर्म और परम्परा में आरुढता का नमूना जिसे ये तथाकथित द्विबाप की औलादें राष्ट्रद्रोही सिद्ध करने के लिए करती हैं उनका स्क्रीन शॉट भी यहाँ संलग्न किये देती हूँ, शेष विचार कर लेना।

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