मेरी किसी से भी न जातीय शत्रुता है और न ही जातीय मित्रता ही। जिसके कारण आपका समर्थन या विरोध मैं करूँगी।

मेरी किसी से भी न जातीय शत्रुता है और न ही जातीय मित्रता ही। जिसके कारण आपका समर्थन या विरोध मैं करूँगी।
                    परन्तु इसका आशय यह नहीं कि, कोई भी आकर सनातन मूल्यों, सिद्धान्त और संस्कारादि पर नित्य प्रति कीचड़ उछालने और बदनाम करने निंदा और आक्षेप जैसे निकृष्ट कर्मों से अपने घृणित प्रयोजनों को सिद्ध करने का प्रयास करेगा। और सब यूँ ही मौन होकर आपके घृणित प्रपंचों को मूकदर्शक बनकर देखेंगे। 
                प्रश्न पूछने का अधिकार और चरित्र व्यवहार पर संशय रखने का अधिकार #परिवार में हरेक सदस्य को समान रूप से प्राप्त रहता है। न किसी को छोटा समझा जाता है और न ही किसी को बड़ा। और सभी के लिए यह दायित्वबोध भी अनिवार्य किया जाता है कि, "वे किसी भी परिवारी सदस्य द्वारा पूछे गए प्रश्न वा रखे गए व्यवहार संशय पर अभीष्ट उत्तर प्रदान करे।"
किन्तु! किसी परिवारीजन को यह कत्तई अधिकार नहीं दिया जाता कि, वह अपने ही परिवार के सदस्यों पर #प्रापंचिक_आक्षेपों से प्रहार करने का दुस्साहस करे। अगर कोई परिवार का सदस्य अपने ही परिवारी सदस्य के प्रति #प्रपञ्च रचता हुआ सिद्ध होता है, तब कुलश्रेष्ठ जनों का कर्त्तव्य है कि वे उस प्रपंची से उचित कारण जानने का उद्यम करें। ताकि दण्ड संहिता का अनुचित प्रयोग अपने ही कुलदीपकों के विरुद्ध न लेना पड़े। क्योंकि एक कुलश्रेष्ठ के लिए अपने कुलदीपक को दण्ड देना #मृत्यु सम कष्टकारी होता है।
                    मेरा व्यवहार किसी को टॉरगेट करना नहीं था, मेरा व्यवहार बस उस प्रापंचिक विषयों को लेकर था जो, अपने ही लोगों के विरुद्ध अपने ही लोग प्रयोग करते देखे गए। जिसमें सबसे अधिक सन्तप्त करने वाला वीडियो था #लल्लाह_की_स्तुति। जिस पीठ द्वारा लल्लाह की #भर्त्सना की गई, उसी पीठ के आचार्य को लल्लाह का उपासक सिद्ध कर दिया गया। वह भी पूर्णतः प्रपञ्च और छद्म का आड़ लेकर। क्यों......
                    राम मन्दिर के विषय में आपके मत विरुद्ध आचार्यों का व्यवहार रहा। परन्तु क्या किसी भी आचार्य ने आपके विरुद्ध ऐसा कोई षड्यंत्र रचा? ऐसा कोई साक्ष्य या प्रमाण प्राप्त होता है? जिससे यह सिद्ध हो कि, राम मन्दिर उद्घाटन में न जाने वाले आचार्य भारतीय संस्कृति और अस्मिता के विरुद्ध किसी प्रकार का षडयंत्र किसी प्रकार का प्रपञ्च या किसी प्रकार का #द्रोह जैसे घृणित व्यवहार का आलम्बन लिया? ऐसा कोई आज तक साक्ष्य या प्रमाण देखने को मिला?
                    फिर विषय बंगाल्देश की त्रासदी की, जहाँ हिन्दू छात्रों द्वारा समर्थित छात्र आंदोलन जब सत्ता परिवर्तन कर देता है, तब म्लेच्छ अपने मूलभूत चारित्रिक पहचान को सिद्ध करते हुए, उन उन समस्त सहयोगी छात्रों को ही नहीं, अन्य सहयोगियों को भी चुन-चुन कर निपटाना आरम्भ कर दिए। आग और बढ़ी जो आगे #हिन्दू पहचान को ही लक्ष्य करके #हिन्दू_जेनोसाइड_2 की आधारशिला रख दी।
                     यहाँ भारतीय साधुओं और उनकी मण्डली का उस घटना से क्या सम्बन्ध था? जिन साधुओं को बीते 70 वर्ष में अपने सम्पूर्ण #शक्ति_पीठों के दर्शन तक कि अनुमति भारत सरकार नहीं ले पायी या दिला पायी। बदले में उन्हें #धार्मिक_शिक्षा पर प्रतिबंध लगाकर म्लेच्छों(इश्लामिकों और ईसाइयों) के लिए एक सेफ स्पेस बनाते हुए, उन्हें मठ तक सीमित बना डाला। मंदिरों से उनके अधिकार को छीनकर म्लेच्छों के प्रचार-प्रसार और विस्तार के लिए मंदिरों को प्राप्त होने वाले दान राशि को सुनिश्चित किया। 
उनकी भारत भ्रमण यात्राओं पर नियंत्रण पाने के लिए #धारा_144 और #जनसभा, #जनांदोलन जैसे कानूनों के फेरे में जकड़कर किसी भी ग्रामीण अंचल के भ्रमण के लिए "सम्बद्ध सरकारी मिशनरियों से परमिशन की आवश्यकता को अनिवार्य" कर दिया गया। 
कृपा करके आप सब बताने का कष्ट करें, कि इतने सारे बन्धनों के बाद भी क्या किसी भी प्रकार के "स्वतंत्र निर्णय के लिए उनकी स्थिति अब भी शेष बची है क्या?"
                  मुझे याद है, बचपन में अयोध्या, गया, और मथुरा ही नहीं, पुरी सहित उज्जैन तक से साधु महात्माओं का झुण्ड और उनके दल के सदस्य ग्रामों में प्रत्येक परिवार से मिलने के लिए आया करते थे। परन्तु पिछले दस पंद्रह वर्षों से किसी भी साधु और महात्मा को कभी किसी गाँव तक में नहीं देखती। क्यों? 
ऐसा क्या हुआ कि, वर्ष में एक बार अनिवार्य आने वाले साधु महात्मा आज मठों तक सीमित हो गए?
अब तो जोगी की #सारँगी भी कभी भोर में सुनाई नहीं पड़ती।
"कारण तो सब जानते हैं न? निरन्तर #अफवाह फैलाकर संस्कृति को पंगु बनाने वाले कानूनों का प्रयोग करके ये सब किया गया।" 
परन्तु क्या कभी किसी भी व्यक्ति/संस्था या राजनेता द्वारा इस परंपरा को बाधित करने वाले कानूनों और प्रपंचों पर कभी बात तक कि गई?

"इंटरमीडिएट में इंग्लिश में एक चेप्टर #शिक्षक से सम्बंधित है, जिसके लेखक स्वामी #विवेकानंद जी हैं। जो बताते हुए गर्व ख्यापित करते हैं कि, "भारत में संस्कृति की जानकारी अंतिम पायदान तक देखी जाती है, जिसका श्रेय उन साधुओं और महात्माओं को जाता है, जो निरन्तर भ्रमण करके ज्ञान गङ्गा को अंतिम इकाई तक पहुंचाने का उद्यम करते हैं।"
वर्त्तमान की राष्ट्रवादी सरकार भी क्या यह सुनिश्चित करवा पायी कि, साधुओं और महात्माओं की भारत भ्रमण की अनिवार्यता को सुनिश्चित कर सके?
नहीं न ? क्यों? ये मैं नहीं पूछूँगी। बल्कि यह आप सब स्वयं विचार करें, और बताएं क्यों?
                  कहने के लिए तो बहुत कुछ है, परन्तु अब मुझे भी समझ आ चुका है कि, जो अपने ही लोगों के प्रति प्रपञ्च रचकर उन्हें बदनाम करने का उद्यम कर सकता है, वह किसी भी प्रकार से संवाद के योग्य नहीं। और न ही वह किसी अपेक्षा के योग्य ही है।
इसलिए यही अब इस विषय का पटाक्षेप करती हूँ।
दिनकर ने रश्मिरथी में एक बहुत सुन्दर लाइन आप सब के व्यवहार पर कही है-
"जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।"

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