कलकत्ता प्रकरण - सावधान भरतपुत्रों

हम नपुंसक हो चुके हैं, नहीं नहीं ऐसी नीचता तो वे भी नहीं कर सकते, हम तो निर्लज्जता की पराकाष्ठा को प्राप्त कर प्राण हीन संवेदना हीन हो चुके हैं। हम काली पट्टी बांधकर हाथों में मोमबत्ती लेकर आएंगे। हमारी पथराई आंखों में घड़ियाली आंसू भी नहीं होंगें। एक दो मिनट नारेबाजी करेंगें, हो सकता है मौन भी रहें। फिर फोटो और वीडियो का एंगल सेट करेंगें। और उसके पश्चात बत्तीसी दिखाते हुए अट्टहासों से अपनी नीचता का निर्लज्ज प्रदर्शन करते हुए घर जाएंगें खाना ठूंस कर सो जाएंगे और सुबह उठकर फिर वही सामान्य दिनक्रम ।

हम कलकत्ता में हुए पैशाचिक कुकृत्य का विरोध कर रहे हैं क्यों? क्यों कि हम भी मेडिकल फील्ड में संबंधित हैं। हम भी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं स्टेटस लगा रहे हैं और उसमें देश के स्वतन्त्रता दिवस पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। हमें लगता है हर घर में तिरंगा लगाने से क्या होगा, क्यों मनाएँ हम स्वतन्त्रता दिवस | हमने हमारे राष्ट्र को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। हमने अपनी नपुंसकता को राष्ट्र की असमर्थता घोषित कर दिया अपने कादर्य को देश का दोष बता दिया। व क्या हम उन सहस्त्रों आबाल वृद्ध स्त्री पुरुष उन वीराङ्गनाओं वीरों उन अगणित हुतात्माओं के बलिदानों पर अंगुली उठाने के योग्य हो गए?

अलक्ष्येन्द्र से अंग्रेजों पर्यन्त हुए अगणित अत्याचार हमें स्मरण नहीं। ये तो बहुत पुरानी बातें हुईं, हमारी स्मृति इतनी सुदृढ कहाँ? हमें 1946 का 16 अगस्त का दिन भी याद नहीं, इसी कलकत्ता में "डायरेक्ट एक्शन डे" के नाम पर हुए जीनोसाइड को तो हम जानते ही नहीं। 1947 में विभाजन के दौरान की विभीषिका और नरसंहार की हमें कोई जानकारी नहीं। 1990 कश्मीर जीनोसाइड भी हमें नहीं पता। ये सभी पुरानी बातें हो गई, हमें तो अपने आस पड़ोस के देशों का वर्तमान परिदृश्य भी नहीं दिखाई देता। न बंग्लादेश में हो रही हिंसा दिखाई पड़ती हैं न वहाँ के प्रधानमन्त्री का ऐसा पलायन और न ही पलायन उपरान्त उनके आवास पर हुई निर्लज्ज लूट। हम तो उस शुतुरमुर्ग की तरह हैं जो अपना सिर रेत में गाड़कर स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं।

 हमसे कहीं बेहतर तो वे वानर भालू-रीक्ष-गीध-गिलहरी हैं जो भगवती सीता के अपमान के प्रतिकार के लिए उस रावण के सम्मुख डट गए जिससे त्रिलोक भयाक्रांत था।

इस बार उस कुकृत्य का शिकार हमारी जैसी एक डाक्टर हुईं तो हम आक्रोशित हो गए और विरोध प्रदर्शन के नाम पर जाने-अनजाने हमने अपना कंधा कुत्सित राष्ट्रविरोधी मानसिकताओं और विचारधाराओं को सहज ही उपलब्ध करवा दिया। जिस पर रखकर वह बन्दूक चला रहे हैं और उनके निशाने पर हमारा राष्ट्र और स्वयं हम ही हैं। और हम इस पर विचार किए बिना, समझे बिना संलग्न हैं।

हम यह विस्मृत कर बैठे कि हमें अपराध व अपराधी का विरोध करना है न कि अपने ही राष्ट्र की संस्कृति पर नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना है। अपना आक्रोश प्रकट करें वह अत्यावश्यक है लेकिन कोई हमारा ही उपयोग हमारे विरुद्ध न कर सके इस बात का ध्यान रहे। यह समझें कि कोई हमारी क्रोधाग्नि को हमारे ही घर पर न मोड दे और हम अपना ही अस्तित्व भस्मीभूत न कर दें। और विरोध प्रदर्शन के नाम पर केवल कार्यपालिका-न्यायपालिका शासन-प्रशासन पर दोष मढ़कर हमने अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली, क्या ये उचित है?

अपराधी को दण्डित करना कार्यपालिका और न्यायपालिका का उत्तरदायित्व है, शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है, यह बात पूर्णतः सत्य है। और दण्ड भी ऐसा होना चाहिए कि अन्य अपराधियों की आत्मा कांप उठे व पुनः कोई दुस्साहस न कर सके। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा 15 वर्ष की वय में ही त्वरित न्याय करते हुए रांझा गांव के पाटिल को ऐसे ही कुत्सित कुकृत्य के लिए दिया गया दण्ड इसका उदाहरण है।

शासन और प्रशासन को उनके कर्तव्यों का स्मरण कराने वाले हम। क्या हमने कभी हमारे स्वयं के कर्तव्यों पर विचार किया? क्या मोमबत्ती जलाने और सोशल मीडिया पोस्ट कर देने से हमारा कर्तव्य पूरा हो गया? क्या इसके इतर हमारा कोई उत्तरदायित्व नहीं? क्या इसी प्रकार अपराध हो जाने के पश्चात शोक सभाएं और अपराधियों को पकड़कर दण्डित किए जाने की प्रतीक्षा होती रहनी चाहिए ?

हम तो आयुर्वेद के विद्यार्थी हैं न हमने तो रोग की चिकित्सा से भी पूर्व प्रथम प्राथमिकता स्वास्थ्य रक्षण को दी है। तो क्या प्राणों की रक्षा, सम्मान और अस्मिता की रक्षा, मर्यादा का संरक्षण, स्वास्थ्य रक्षण से इतर है? क्या इनके संरक्षण के बिना स्वास्थ्य रक्षण संभव है?

हम अमृत कलश हस्ताय कहते हुए धन्वन्तरि भगवान का पूजन करते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि हालाहल का पान करने वाले आदियोगी शिव भी हमारे आराध्य है। हमें यह समझना ही होगा कि अमृतपान की अभिलाषा रखने वाले में विषपान का सामर्थ्य होना ही चाहिए। यदि हमारे हमारे भीतर विषपान करने व उसे पचाने का साहस नहीं है तो हम अमृत के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। रोगी के प्राणों के रक्षण की योग्यता अर्जित करने वालों को स्वप्राणों का रक्षण भी सीखना ही होगा।

हमें हमारी बहनों के मन में यह विश्वास जागृत करना ही होगा कि नारी केवल लक्ष्मी अथवा सरस्वती स्वरूपा नहीं हैं। आवश्यकता के अनुरूप वे महाकाली कालरात्रि रूप भी धारण कर सकतीं हैं। वे अबला नहीं सबला हैं। भारतीय नारी सदा सर्वदा शक्ति स्वरूपा है। देवी पूजन, शक्ति पूजन केवल धर्माचरण न रहे उसे लोकाचरण में, व्यवहार में लाएँ, उस मूल तत्व की अनुभूति करें स्वयं शक्ति स्वरुपा बनें। अखिल ब्रह्माण्ड में यह एक भारत भूमि ही तो है जिसने मनुष्य को भी ईश्वर बनने का अवसर प्रदान किया है।

किन्तु केवल यह मानसिक दृढ़ता पर्याप्त होगी? नहीं कदापि नहीं मानसिक के साथ-साथ शारीरिक सामर्थ्य भी अर्जित करना ही होगा। जब महारानी लक्ष्मीबाई दुर्गावती चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा अवंतीबाई आदि वीराङ्गनाएं इतने भीषण युद्ध लड़ सकतीं हैं तो क्या आप आत्मरक्षा भी नहीं कर सकतीं? हम भी उन्हीं की संतति हैं, हमारी धमनियों में भी वही रक्त प्रवाहित है फिर हमें किस बात का भय, किस बात की शंका? हमें सदैव यह स्मरण रखना होगा कि सौन्दर्य, शक्ति का अनुचर है। हमें अपने आप को शारीरिक व मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्ति से, सामर्थ्य से, दृढ़ता से युक्त करना ही होगा। 

हमारे कालेजों में विभिन्न गतिविधियां होतीं हैं जिसके लिए हमें पोस्टर बनाने होते हैं और उसमें हमें पेपरकटर थर्माकोल कटर की आवश्यकता भी पड़ती है। हमने बैग से सारा सामान निकाला पर हड़बड़ी में कटर बैग में ही रखा रह गया। एनाटॉमी में डिसेक्शन सीखना था हम डिसेक्शन किट लेकर गए पर बैग में ही रह गई। त्रिकटु चूर्ण तो एक अत्यधिक महत्वपूर्ण औषधि है, हम हमेशा अपने बैग में ही रखते है। हम लोग हॉस्पिटल ड्यूटी के दौरान शल्य विभाग में भी अपनी
सेवाएं देते हैं जल्दीबाजी में कुछ शल्योपकरण हमारे बैग में ही रह सकते हैं। प्रच्छान्न और सिरावेध केवल प्रोसीजर रूम तक सीमित नहीं होते और मर्म भी केवल शल्य का विषयार्ध मात्र नहीं। वैद्यों को युक्ति युक्त होना ही चाहिए यह चिकित्सा सिद्धि
के लिए जितना अनिवार्य है, आत्मरक्षा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण भी है।

बहनों के हृदय में इस आत्मविश्वास की जागृति अनिवार्य है, यह भाइयों का भी उत्तरदायित्व है और यही है काल
का आह्वान। बहनों के सम्मान व अस्मिता का संरक्षण जितना बड़ा उत्तरदायित्व है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण व विशिष्ट उत्तरदायित्व है उन्हें आत्मरक्षा समर्थ बनने में उनका सहायक बनना और यदि हमारे भीतर इतना भी साहस और सामर्थ्य नहीं, तो हमें धिक्कार है और रक्षाबन्धन पर राखी बंधवाने का हमें कोई अधिकार नहीं। अपराधियों को कठोरतम दण्ड देना जैसे सत्ता का उत्तरदायित्व है, उसी प्रकार यह हमारा भी कर्तव्य है कि हमारे आस पास ऐसी घृणित परिस्थिति उत्पन्न ही न हों। और यदि हम ऐसा करने का प्रयास भी नहीं कर सकते तो ऐसे ही कठपुतली बने तमाशा देखें और चुल्लू भर पानी में डूब मरें।

मनुष्य मौन हो सकता है वह तटस्थ होने का अपराधी हो सकता है किन्तु कलम स्वतन्त्र है और उसे स्वतन्त्र होना ही चाहिए, अन्यथा......


सुभद्रदेव सिंह
आयुर्वेदाचार्य प्रशिक्षु
शा.स्व.आयुर्वेद महा.एवं चिकित्सालय रीवा

टिप्पणियाँ

  1. शानदार लेख...भैया

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    1. बहुत अच्छा लेख….
      अंतर्मन की वेदना, एक भाई जैसा विचार, मानव होने की पहचान ….जो आजकल कहीं कहीं संस्कारों में कहीं कुछ कमी होने के कारण समाज में नहीं दिख रहा है।
      नहीं तो …हमारा भारत पहले ऐसा नहीं था …😔

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  2. Kam se kam yeh pdhke sabki soch tumhare tarah ho jaye agar na bhi ho toh log koshish kar skte hein...🙏🏼 very well written 👌👌

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  3. बहुत सुन्दर लेख है सुभद्र जी आपने जो लिखा बिल्कुल सही लिखा है ऐ वेदना मेरे पन भी चल रही है फोटो खींचकर हर कार्यक्रम की एक समाज में एक स्ठेटश बन गया है वेदना खटना की कितनी अंदर है वह फोटो विडियो से पता चल रहा है

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  4. Adbhut vichar...adbhut lekh sirjii..... lekh sarji

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