समुद्र लाँघने के लिये उत्साहपूर्ण हनुमान जी महेन्द्र पर्वत पर चढ़ गए


          सौ योजन के समुद्र को लाँघने के लिये वानरश्रेष्ठ हनुमानजी को सहसा वेग से परिपूर्ण बढ़ते देख वानर तुरन्त शोक छोड़कर अत्यन्त हर्ष से भर गये और महाबली हनुमान जी की स्तुति करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। वे उनके चारों ओर खड़े हो प्रसन्न एवं चकित होकर उन्हें इस प्रकार देखने लगे, जैसे उत्साहयुक्त नारायणावतार वामनजी को समस्त प्रजा ने देखा था।
          महाबली हनुमान जी ने शरीर को बढ़ाना आरम्भ किया। साथ ही हर्ष के साथ अपनी पूँछ को बारम्बार घुमाकर अपने महान् बल का स्मरण किया। वानर शिरोमणि तेज से परिपूर्ण होते हुए हनुमान जी का रूप उस समय बड़ा ही उत्तम प्रतीत होता था। जैसे पर्वत की विस्तृत कन्दरा में सिंह अँगड़ाई लेता है, उसी प्रकार पवनपुत्र ने अपने शरीर को अँगड़ाई ले लेकर बढ़ाया। बुद्धिमान् हनुमान जी का दीप्तिमान् मुख जलते हुए धूम रहित अग्नि के समान शोभा पा रहा था।
          वे खड़े हो गये। उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमाञ्च हो आया। उस अवस्था में हनुमान जी ने वानरों को प्रणाम करके इस प्रकार कहा–
          आकाश में विचरने वाले वायु देवता बड़े बलवान् हैं। उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वे अग्निदेव के सखा हैं और अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वत-शिखरों को भी तोड़ डालते हैं। अत्यन्त शीघ्र वेग से चलने वाले उन शीघ्रगामी महात्मा वायु का मैं औरस पुत्र हूँ और छलाँग मारने में उन्हीं के समान हूँ। कई सहस्र योजनों तक फैले हुए मेरुगिरि की, जो आकाश के बहुत बड़े भाग को ढके हुए है और उसमें रेखा खींचता सा जान पड़ता है, मैं बिना विश्राम लिये सहस्रों बार परिक्रमा कर सकता हूँ। अपनी भुजाओं के वेग से समुद्र को विक्षुब्ध करके उसके जल से मैं पर्वत, नदी और जलाशयों सहित सम्पूर्ण जगत् को आप्लावित कर सकता हूँ।
          वरुण का निवास स्थान यह महासागर मेरी जाँघों और पिंडलियों के वेग से विक्षुब्ध हो उठेगा और इसके भीतर रहने वाले बड़े-बड़े ग्राह ऊपर आ जायेंगे। समस्त पक्षी जिनकी सेवा करते हैं, वे सर्पभोजी विनता नन्दन गरुड़ आकाश में उड़ते हों तो भी मैं सहस्रों बार उनके चारों ओर घूम सकता हूँ। श्रेष्ठ वानरो! उदयाचल से चलकर अपने तेज से प्रज्वलित होते हुए सूर्यदेव को मैं अस्त होने से पहले ही छू सकता हूँ और वहाँ से पृथ्वी तक आकर यहाँ पैर रखे बिना ही पुनः उनके पास तक बड़े भयंकर वेग से जा सकता हूँ।
          आकाशचारी समस्त ग्रह-नक्षत्र आदि को लाँघकर आगे बढ़ जाने का उत्साह रखता हूँ। मैं चाहूँ तो समुद्रों को सोख लूँगा, पृथ्वी को विदीर्ण कर दूँगा और पद प्रहार से पर्वतों को चूर-चूर कर डालूँगा; महान् वेग से महासागर को लांघता हुआ मैं अवश्य उसके पार पहुँच जाऊँगा।
          आज आकाश में वेग पूर्वक जाते समय लताओं और वृक्षों के नाना प्रकार के फूल मेरे साथ-साथ उड़ते जायँगे। बहुत-से फूल बिखरे होने के कारण मेरा मार्ग आकाश में अनेक नक्षत्रपुञ्जों से सुशोभित स्वाति मार्ग (छायापथ) के समान प्रतीत होगा। वानरो! आज समस्त प्राणी मुझे भयंकर आकाश में सीधे जाते हुए, ऊपर उछलते हुए और नीचे उतरते हुए देखेंगे।
          कपिवरो! तुम देखोगे, मैं महागिरि मेरु के समान विशाल शरीर धारण करके स्वर्ग को ढकता और आकाश को निगलता हुआ-सा आगे बढूँगा, बादलों को छिन्न-भिन्न कर डालूँगा, पर्वतों को हिला दूँगा और एकचित्त हो छलाँग मारकर आगे बढ़ने पर समुद्र को भी सुखा दूँगा। विनतानन्दन गरुड में, मुझमें अथवा वायुदेवता में ही समुद्र को लाँघ जाने की शक्ति है। पक्षिराज गरुड अथवा महाबली वायुदेवता के सिवा और किसी प्राणी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो यहाँ से छलाँग मारने पर मेरे साथ जा सके। मेघ से उत्पन्न हुई विद्युत् की भाँति मैं पलक मारते-मारते सहसा निराधार आकाश में उड़ जाऊँगा। समुद्र को लाँघते समय मेरा वही रूप प्रकट होगा, जो तीनों पगों को बढ़ाते समय वामन रूपधारी भगवान् विष्णु का हुआ था।
          वानरो! मैं बुद्धि से जैसा देखता या सोचता हूँ, मेरे मन की चेष्टा भी उसके अनुरूप ही होती है। मुझे निश्चय जान पड़ता है कि मैं विदेह कुमारी का दर्शन करूँगा, मैं वेग में वायुदेवता तथा गरुड के समान हूँ। मेरा विश्वास है कि इस समय मैं दस सहस्र योजन तक जा सकता हूँः वज्रधारी इन्द्र अथवा स्वयम्भू ब्रह्माजी के हाथ से भी मैं बल पूर्वक अमृत छीनकर सहसा यहाँ ला सकता हूँ। समूची लंका को भी भूमि से उखाड़कर हाथ पर उठाये चल सकता हूँ। ऐसा मेरा विश्वास है।’
          अमिततेजस्वी वानरश्रेष्ठ हनुमान जी जब इस प्रकार गर्जना कर रहे थे, उस समय सम्पूर्ण वानर अत्यन्त हर्ष में भरकर चकित भाव से उनकी ओर देख रहे थे।अमितविक्रमेय हनुमान जी की बातें बन्धुवों के शोक को नष्ट करने वाली थीं। उन्हें सुनकर वानर सेनापति जाम्बवान् को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोले–
          जाम्बवान् बोले–‘वीर! केसरी के सुपुत्र! वेगशाली पवनकुमार ! तात! तुमने अपने बन्धुओं का महान् शोक नष्ट कर दिया। यहाँ आये हुए सभी श्रेष्ठ वानर तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं। अब ये कार्य की सिद्धि के उद्देश्य से एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिये मङ्गलकृत्य–स्वस्तिवाचन आदि का अनुष्ठान करेंगे। ऋषियों के प्रसाद, वृद्ध वानरों की अनुमति तथा गुरुजनों की कृपा से तुम इस महासागर के पार हो जाओ। जब तक तुम लौटकर यहाँ आओगे, तब तक हम तुम्हारी प्रतीक्षा में एक पैर से खड़े रहेंगे, क्योंकि हम सब वानरों का जीवन तुम्हारे ही अधीन है।’ तदनन्तर कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने उन वनवासी वानरों से कहा–
          हनुमान जी बोले–‘जब मैं यहाँ से छलाँग मारूँगा, उस समय संसार में कोई भी मेरे वेग को धारण नहीं कर सकेगा। शिलाओं के समूह से शोभा पाने वाले केवल इस महेन्द्र पर्वत के ये शिखर ही ऊँचे-ऊँचे और स्थिर हैं, जिन पर नाना प्रकार के वृक्ष फैले हुए हैं तथा गैरिक आदि धातुओं के समुदाय शोभा दे रहे हैं। इन महेन्द्र शिखरों पर ही वेग पूर्वक पैर रखकर मैं यहाँ से छलाँग माऊँगा। यहाँ से सौ योजन के लिये छलाँग मारते समय महेन्द्र पर्वत के ये महान् शिखर ही मेरे वेग को धारण कर सकेंगे।’
          यों कहकर वायु के समान महापराक्रमी शत्रुमर्दन पवनकुमार हनुमान जी पर्वतों में श्रेष्ठ महेन्द्र पर चढ़ गये। वह पर्वत नाना प्रकार के पुष्पयुक्त वृक्षों से भरा हुआ था, वन्य पशु वहाँ की हरी-हरी घास चर रहे थे, लताओं और फूलों से वह सघन जान पड़ता था और वहाँ के वृक्षों में सदा ही फल-फूल लगे रहते थे। महेन्द्र पर्वत के वनों में सिंह और बाघ भी निवास करते थे, मत वाले गजराज विचरते थे, मदमत्त पक्षियों के समूह सदा कलरव किया करते थे तथा जल के स्रोतों और झरनों से वह पर्वत व्याप्त दिखायी देता था।
          बड़े-बड़े शिखरों से ऊँचे प्रतीत होने वाले महेन्द्र पर्वत पर आरूढ़ हो इन्द्रतुल्य पराक्रमी महाबली कपिश्रेष्ठ हनुमान् वहाँ इधर-उधर टहलने लगे। महाकाय हनुमान जी के दोनों पैरों से दबा हुआ वह महान् पर्वत सिंह से आक्रान्त हुए महान् मदमत्त गजराज की भाँति चीत्कार-सा करने लगा। वहाँ रहने वाले प्राणियों का शब्द ही मानो उसका आर्त चीत्कार था। उसके शिला समूह इधर-उधर बिखर गये। उससे नये-नये झरने फूट निकले। वहाँ रहने वाले मृग और हाथी भय से थर्रा उठे और बड़े-बड़े वृक्ष झोंके खाकर झूमने लगे।
          मधुपान के संसर्ग से उद्धत चित्त वाले अनेकानेक गन्धर्वो के जोड़े, विद्याधरों के समुदाय और उड़ते हुए पक्षी भी उस पर्वत के विशाल शिखरों को छोड़कर जाने लगे। बड़े-बड़े सर्प बिलों में छिप गये तथा उस पर्वत के शिखरों से बड़ी-बड़ी शिलाएँ टूट-टूटकर गिरने लगीं। इस प्रकार वह महान् पर्वत बड़ी दुरवस्था में पड़ गया।
          बिलों से अपने आधे शरीर को बाहर निकालकर लम्बी साँस खींचते हुए सर्पों से उपलक्षित होने वाला वह महान् पर्वत उस समय अनेकानेक पताकाओं से अलंकृत था ।जैसे विशाल दुर्गम वन में मार्ग भटका पथिक भारी विपत्ति में पड़ जाता है, यही दशा उस महान् पर्वत महेन्द्र की हो रही थी।
          शत्रुवीरों का संहार करने वाले वानर सेना के श्रेष्ठ वीर वेगशाली महामनस्वी महानुभाव हनुमान जी ने चित्त को एकाग्र करके मन-ही-मन लंका का स्मरण किया।

🔥⚔️🔥जय श्री राम🔥⚔️🔥

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