मधु कैटभ वध : मधु कैटभ वध का वध भगवान विष्णु ने कैसे किया पढ़ें रोचक कथा

                            

भगवान् विष्णु के योगनिद्रा में होने पर मधु कैटभ के वध हेतु कमलजन्मा ब्रह्माजी ने माँ महाकाली का स्तवन किया , वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस चरणों से युक्त हैं।
       
          पूर्वकाल में स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के राजा चैत्रवंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था। वे प्रजा का पुत्रों की भाँति धर्म पूर्वक पालन करते थे; तो भी कोलाविध्वंसी नामक कुल के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये।
          राजा सुरथ की दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ। कोलाविध्वंसी से राजा सुरथ युद्ध में परास्त हो गये। वे युद्धभूमि से अपने नगर को लौट आये और केवल छोटे राज्य के राजा होकर रहने लगे। समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा, किन्तु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया।
          राजा का बल क्षीण हो चला था;उनके दुष्ट, एवं दुरात्मा मन्त्रियों ने उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना तथा कोष पर अधिकार कर लिया। सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, वे घोड़े पर सवार हो अकेले ही एक घने वन में चले गये। 
          वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम देखा, जहाँ असंख्य हिंसक जीव [अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति का परित्याग कर परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के अनेकों शिष्य उस वन की शोभा बढ़़ा रहे थे।
          मुनि ने उनका सत्कार किया वे मुनिश्रेष्ठ के आश्रम में विचरते हुए कुछ काल तक रहे। पुनः मोह से आकृष्टचित्त होकर चिन्ता करने लगे–‘पूर्वकाल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे वंचित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्म पूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। 
          जो सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा ? जो लोग सदा मेरे साथ थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं का अनुसरण करते होंगे। 
          उन अपव्ययी लोगों के द्वारा सदा व्यय होते रहने के कारण मेरा राजकोष रिक्त हो जायगा।’ राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे।
          एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा–तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है ? तुम क्यों शोकग्रस्त हो ?’ राजा सुरथ का यह प्रेम पूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा।
          राजन्! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है। मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रों से वंचित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दु:खी होकर मैं वन में चला आया हूँ। 
          यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों की कुशल है या नहीं। इस समय वे कुशल से रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है ? वे मेरे पुत्र कैसे हैं ? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं ?’
          राजा ने पूछा–‘जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें छोड़ दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह का बन्धन क्यों है ?’
          वैश्य बोला–‘मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्नेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के प्रति अनुराग को तिलांजलि दे दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। 
          महामते! गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेममग्न हो रहा है, यह क्या है–इस बात को मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं निःश्वास ले रहा हूँ मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है। उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ ?’
          तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ तथा समाधि मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण व्यवहार के तत्पश्चात् वैश्य और राजा ने वार्तालाप आरम्भ किया।
          राजा ने कहा–‘भगवन् ! मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को अत्यंत दु:ख देती है। जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरा मोह बना हुआ है। 
          मुनिश्रेष्ठ! यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है। यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसे छोड़ दिया है। स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता ,दोनों ही बहुत दु:खी है,महाभाग ! विवेक शून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें यह मूढ़ता प्रत्यक्ष लक्षित है।
          ऋषि बोले–‘महाभाग ! विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है। इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग अलग हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और दूसरे रात्रि में ही नहीं देखते। तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन -रात्रि में देखते हैं ।
           इन पक्षियों को देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में अन्न के दाने डाल रहे हैं! नरश्रेष्ठ! मनुष्य लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं ? 
          यद्यपि उनमें समझ का अभाव नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति–जन्म-मरण की परम्परा बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह में हैं।इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान् विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत् मोहित हो रहा है। 
          वे भगवती महामायादेवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
          राजा ने पूछा–‘भगवन् ! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं ? ब्रह्मन्! उनका आविर्भाव कैसे हुआ ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं ? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो तथा जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ।
          ऋषि बोले–‘राजन्! वास्तव में तो देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकार से होता है। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, 
          कल्पान्त में जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णव में निमग्न हो रहा था .प्रभु भगवान् विष्णु शेषनागशय्या पर योगनिद्रा का आश्रय ले रहे थे, उनके कानों के मैल से मधु कैटभ नाम से विख्यात दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, वे दोनों ब्रह्माजी का वध करने को तत्पर हो गये। 
          भगवान् विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने एकाग्रचित्त होकर भगवान् विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरम्भ किया। 
          जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत् को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान् विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे।
          ब्रह्माजी ने कहा–‘देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार- इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। 
          देवि ! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि ! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अन्तर में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। 
          जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन काल में स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महासमृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। 
          भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ–ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो–इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर–सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
          सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है ? मुझको, भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है ?
          देवि ! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोहग्रस्त कर दो,जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। 
          ऋषि कहते हैं–‘राजन्! जब ब्रह्माजी ने मधु कैटभ के वध के उद्देश्य से भगवान् विष्णु को जगाने के लिये तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की स्तुति की, तब वे भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष:स्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खड़ी हो गयीं। 
          योगनिद्रा से मुक्त हो जगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनागशय्या से जाग उठे। उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी थे तथा ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।तब भगवान् श्रीहरि ने उन दोनों के साथ पाँच सहस्र वर्षों तक बाहुयुद्ध किया।
          वे दोनों अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था; अतएव वे भगवान् विष्णु से कहने लगे–‘हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हमसे वर माँगो।’
          श्रीभगवान् बोले–‘मेरे हाथों तुम्हारा वध हो 
           उन्होंने सम्पूर्ण जगत् में जल-ही-जल देखा, तब कमलनयन भगवान् से कहा–‘जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो।’
          तथास्तु' कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्र से काट डाले। देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई थीं। 
          

श्रीमार्कण्डेय पुराण सावर्णिक मन्वन्तर 'मधु-कैटभ-वध'

🌸जय श्री राम🌸

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