कार्त्तिक कृष्ण अमावस्या दीपावली महोत्सव कब? एक शास्त्रसम्मत विवेचन।

कार्त्तिक कृष्ण अमावस्या दीपावली महोत्सव कब? एक शास्त्रसम्मत विवेचन।

कार्त्तिक मास के कृष्णपक्ष में अमावस्या के दिन रात्रि में दीपावली पर्व व लक्ष्मीपूजा होती है। लक्ष्मीपूजा हेतु कार्त्तिक कृष्णपक्ष की दर्श अमावस्या प्रदोषव्यापिनी ली जाती है।

सूर्यसिद्धान्तीय पंचांगों में स्पष्टतः 31 अक्टूबर को प्रदोष में दर्श व्याप्ति हो रही है और दूसरे दिन 1 नवम्बर की रात्रि में अमावस्या की किंचित् भी प्राप्ति नहीं हो रही है। इसलिए निर्विवाद रूप से पहले दिन 31 अक्टूबर में ही दीपावली लक्ष्मीपूजा शास्त्रसम्मत है।

परन्तु दृश्यपक्षीय पंचांगों में संवत् 2081 में कार्त्तिक अमावस्या 31 अक्टूबर को सम्पूर्ण प्रदोषव्याप्ति और 1 नवंबर को सायं प्रदोषकाल का किंचित् स्पर्श कर रही है, जिस कारण कुछ दृक्पक्षीय पंचांगकर्ताओं में मतभेद है और कुछ दृश्य पंचांगों द्वारा 1 नवंबर को दीपावली निर्णय दिया गया है। जिससे 2081 में देशभर में दीपावली जैसे हिन्दुओं के शीर्षस्थानीय वैश्विक पर्व पर भ्रम की स्थिति बनने के आसार बन रहे हैं, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसी स्थिति में पुनः सिद्ध हो जाता है कि व्रत-पर्वों के निर्धारण हेतु श्रीसूर्यसिद्धान्तीय गणित ही आर्ष व शास्त्रसम्मत है।

कुछ समय पहले जब से दृश्यपंचांगों का प्रयोग बढ़ा है, तब से प्रत्येक दूसरे तीसरे पर्व पर भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने लगी है और धार्मिकों को अनेक बार अधर्मिकों के सम्मुख संकोच व उपहास की स्थिति का सामना करने हेतु विवश होना पड़ता है। यही वेदतुल्य शास्त्र श्रीसूर्यसिद्धान्त के त्याग का दुष्परिणाम है। आने वाले समय में भी हिन्दू व्रत-पर्वों के निर्णय में अग्राह्य दृश्यगणित के अनाधिकारिक अशास्त्रीय प्रयोग से ऐसी समस्याएं उत्पन्न होती रहेंगी, जिसका एकमेव समाधान श्रीसूर्यसिद्धान्त आधारित पंचांग ही हैं।

कार्तिक कृष्ण अमावस्या की संज्ञा दीपावली है। इस दिन प्रातः अभ्यंग स्नान, श्राद्ध, श्रीलक्ष्मी पूजन, उल्कादान आदि मुख्य हैं तथा यह सुखरात्रिका भी कही जाती है, यह प्रदोषकालव्यापिनी ग्राह्य है। दो दिन प्रदोष में व्याप्ति होने पर दूसरे दिन लेनी चाहिए। जयसिंहकल्पद्रुम के अनुसार दोनों दिन प्रदोष में अव्याप्ति होने पर अर्धरात्रव्यापिनी अमावस्या लेनी चाहिए। प्रदोष और अर्धरात्रिव्यापिनी अमावस्या ही मुख्य है।

ज्योतिःशास्त्र, तिथितत्त्व, ज्योतिर्निबन्ध व अन्यान्य स्थलों में स्कन्दपुराण का वाक्य कहा है-

दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि ।
तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिके ।।

दण्डैकरजनीयोगे - रात्रि में एक दण्ड योग होने पर, दर्शः- दर्श का, स्यात् तु - यदि कभी, परेऽहनि- पर दिन में, तदा- तब, विहाय- छोड़कर, पूर्वेद्युः - पूर्व दिन की को, परेऽह्नि- पर दिन में, सुखरात्रिके- सुखरात्रि होगी।

यदि दूसरे दिन की रात्रि में दर्श का एक दण्ड योग (व्याप्ति) हो, तो पहले दिन को छोड़कर दूसरे दिन सुखरात्रिका होती है।

दीपावली निर्णय में शास्त्रकारों एवं निबंधकारों ने बारम्बार दर्श शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ शास्त्रकारों ने सामान्य अमावस्या की बात न करके दीपावली हेतु सर्वत्र अमावस्या के दर्श भाग का ग्रहण किया है।

वस्तुतः अमावस्या का शुद्ध व अविद्ध भाग दर्श है। अमावस्या की भिन्न भिन्न स्थितियों में सिनीवाली, दर्श व कुहू भी विशिष्ट होती हैं। इसलिए वर्तमान स्थिति में दर्श का काल जानना आवश्यक है।

दर्श की परिभाषा हेतु धर्मसिन्धु में कहा है,

'तत्रामावस्यायाः प्रथमो यामः सिनीवाली। अन्त्योपान्त्ययामौ कुहूः। मध्यवर्तिपञ्चयामा दर्श इति केचित्।'

अमावास्या के प्रथम प्रहर को सिनीवाली कहते हैं। अन्त और अन्त के पहले वाले, इन दो प्रहरों को कुहू कहते हैं। बीच वाले पांच प्रहरों को दर्श कहते हैं।

मुहूर्तचिन्तामणि की पीयूषधारा टीका में भी कहा है,

'... पुनस्तस्यामेवामावास्यायां प्रथमप्रहरानन्तरं सप्तमप्रहरादर्वाक्प्रहरपंचकात्मकः कालो दर्शशब्दवाच्यः इति।'

उस अमावस्या में अमावस्या के प्रथम प्रहर के अनन्तर व सप्तम से पूर्व तक का पाँच प्रहरात्मक काल दर्श कहलाता है।

आगे कहा, 'एवमेकस्यामेवामावास्यायांकालभेदेनत्रयंसम्भवति।', अर्थात्, एक ही अमावस्या में काल के भेद से तीन संभव होती हैं, सिनीवाली, दर्श एवं कुहू।

वाराणसी से मुद्रित पञ्चांगों में 31 अक्टूबर को लगभग 15:12 बजे अमावस्या का आरम्भ, व 1 नवम्बर को 15:13 बजे समाप्ति हो रही है। अमावस्या का कुल मान लगभग 26 घण्टे प्राप्त हो रहा है।

अहोरात्र या तिथि के आठवें भाग को एक याम या एक प्रहर कहते हैं। अतः उपर्युक्त अमावस्या मान के 8 भाग करने पर 26 घण्टे / 8 = 3 घण्टे 25 मिनट एक याम के रूप में प्राप्त हो रहा। अतः सायंकाल लगभग 6:30 से अमावस्या के दर्श भाग का प्रारंभ होगा,जो कि रात्रि लगभग 11:10 तक होगा। पुनः अमावस्या के कुहु भाग का आरंभ होकर अगले दिन 1 नवंबर को सायंकाल 5:13 तक व्याप्त रहेगा। 

यहाँ पर दूसरे दिन । नवम्बर की रात्रि (प्रदोष) में दर्श की प्राप्ति नहीं हो रही है क्योंकि दर्श 1 नवंबर को 11:41 बजे ही समाप्त हो जा रहा है। इसलिए दूसरे दिन 1 नवंबर में न होकर पहले दिन 31 अक्टूबर में ही सुखरात्रि (दीपावली) शास्त्रसम्मत होगी।

पहले दिन 31 अक्टूबर के प्रदोषकाल में दर्श का एक घटी से अधिक का योग प्राप्त हो रहा है, जिससे 31 अक्टूबर को ही दीपावली शास्त्रसम्मत होगी।

धर्मशास्त्रों में व प्राचीन आचार्यों ने दीपावली निर्णय में 'दर्श' शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया है, जबकि अन्य स्थानों पर ऐसा नहीं है, अतः दीपावली निर्णय में अमावस्या के दर्श भाग का प्रदोष से संसर्ग प्रमुख है। यहाँ धर्मशास्त्रों को उद्धृत किया जा रहा है :-

दीपावली के लिए धर्मसिन्धु में कहा है,

'अथाश्विनामावास्यायां प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्। तत्र सूर्योदयं व्याप्यास्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनि दर्शे सति न सन्देहः ।'

आश्विन की अमावास्या (अमान्त मास पक्ष से, उत्तरभारत में कार्त्तिक अमावस्या) में प्रातःकाल अभ्यंगस्नान, प्रदोष में दीपदान और लक्ष्मीपूजा आदि कहा है। इसमें सूर्योदय को व्याप्त करके और सूर्यास्त के बाद रात्रि में एक घटी से अधिक दर्श हो तो उस दिन दीपावली होने में कोई संदेह नहीं है।

राजमार्तण्ड में कहा है,

दण्डैकंरजनी प्रदोषसमये दर्शो यता संस्पृशेत् ।
कर्त्तव्या सुखरात्रिकात्र विधिना दर्शाद्यभावे तदा ।।
पूज्या चाब्जधरा सदैव च तिथिः सैवाहनि प्राप्यते ।
कार्या भूतविमिश्रिता जगुरिति व्यासादिगर्गादयः ।।
अर्थात्, यदि रात्रि को प्रदोष के समय एक दण्ड (घटी) भी दर्श का स्पर्श हो रहा हो, तो उस दिन रात्रि में दर्श आदि के अभाव में भी विधिपूर्वक सुखरात्रिका करे। लक्ष्मी की पूजा सदैव उसी दिन करनी चाहिए जिस दिन प्रदोषव्यापिनी तिथि (दर्श) की प्राप्ति होती हो, यह चतुर्दशी मिश्रित अमावस्या में भी करनी चाहिए ऐसा व्यास, गर्ग आदि अऋषियों का कथन है।

तिथिनिर्णय और ज्योतिः शास्त्र के वचन में कहा है

यदि चोत्तरत्र दिवैव दर्शः प्राप्यते समाप्यते, पूर्वदिने च प्रदोषे लभ्यते तदा चतुर्दशीविद्यापि ग्राह्येत्यर्थः।

दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्याच्च परेऽहनि । तदा विहाय पूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिका ।। अमावास्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी । पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका ।।

इति वचनद्वयमुभयत्र प्रमाणं वेदितव्यम् ।

अर्थात्, "यदि दूसरे दिन दिवाभाग में ही दर्श मिले और समाप्त हो जाए व पहले दिन के दोष में दर्श मिल रहा हो तो चतुर्दशी विद्धा अमावस्या भी ग्राह्य है, यह अर्थ है। ज्योतिःशास्त्र में कहा है, यदि दूसरे दिन की रात्रि में दर्श का एक दण्ड योग (व्याप्ति) हो, तो पहले दिन को छोड़कर सरे दिन सुखरात्रिका होती है।

रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, से सुखरात्रिका कहते हैं।

इन दोनों वचनों को दोनों ही स्थानों में प्रमाण समझा जाना चाहिए।"

इस प्रकार इस वर्ष संवत् 2081 में दूसरे दिन प्रदोष काल में दर्श का एक दंड योग नहीं ने से पहले दिन ही अर्थात् 31/10/2024 को सुखरात्रिका (दीपावली) शास्त्रसम्मत होगी।

शब्दकल्पद्रुम के कार्तिक कृत्य प्रकरण में–

यद्येवं पूर्वदिन एव प्रदोषव्यापिन्यमावास्या तदा पूर्वदिन एव श्राद्धमकृत्वापि उल्कादानं व्यम् । आचारात् पञ्चभूतोपाख्यानञ्च श्रोतव्यम् । उभयतः प्रदोषव्याप्तौ परदिन एव युग्मात् । यतः प्रदोषाप्राप्तावपि उल्कादानं परदिने पार्वणानुरोधात् । अत्रैव पूर्वदिने लक्ष्मी रात्रौ पूज्या ।

"अमावस्या यदा रात्री दिवाभागे चतुर्दशी। पूजनीया तदा लक्ष्मीर्व्विज्ञेया सुखरात्रिका ।।" इति वचनात् । लक्ष्मीपूजाविषयेऽप्येवं व्यवस्था । ततो गृहमध्ये उत्तराभिमुखो लक्ष्मी पूजयेत् । अर्थात्–

यदि पहले दिन प्रदोषव्यापिनी अमावस्या हो तो पहले दिन ही श्राद्ध न करके भी उल्कादान करे। आचार से पंचभूत उपाख्यान सुनना चाहिए। यदि दोनों दिन प्रदोष व्याप्त हो तो दूसरे दिन उल्कादान करे। दोनों दिन प्रदोष में अमावस्या की प्राप्ति न हो तो भी पार्वण श्राद्ध के अनुरोध से दूसरे दिन उल्कादान करे। ऐसी स्थितियों में भी पहले दिन की रात्रि में ही लक्ष्मी पूजा करे। क्योंकि कहा गया है, 'रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इसे सुखरात्रिका कहते हैं।' लक्ष्मीपूजा के विषय में यही व्यवस्था है। शब्दकल्पद्रुम के साथ यह श्लोक तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य द्वारा अपने प्रख्यात ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में भी उद्धृत है, वहाँ इसे ज्योतिर्वचनात् लिखा है। इसके अतिरिक्त तिथिनिर्णय, तिथितत्त्व, कृत्यसार, कालतत्त्वविवेचन आदि अनेक ग्रंथों में यह श्लोक उद्धृत करके प्रातः चतुर्दशी होने पर भी प्रदोष-रात्रिव्यापिनी अमावस्या को ही सुखरात्रिका अर्थात् दीपावली कहा गया है।

शब्दकल्पद्रुम के विवेचन से भी स्पष्ट होता है कि इस वर्ष संवत् 2081 में पहले दिन यानि 31 अक्टूबर 2024 के प्रदोषकाल में ही लक्ष्मीपूजा व सुखरात्रि विहित है।

आचार्य रघुनाथ भट्ट जी के प्रसिद्ध ग्रन्थ कालतत्वविवेचनम् में भी इसी मत का प्रतिपादन है।

अमावास्या कर्त्तव्यदीपदानं च यद्यपि 'कृत्वा तु पार्वण श्राद्धम्' इत्यभिधाय 'ततोऽपराह्नसमये' इत्यादिराजकर्त्तव्याभिधानमध्ये' 'दीपमालाकुलेरम्ये विध्वस्तध्वान्तसंचये । प्रदोषे दोषरहिते शस्ते दोषागमे शुभे ।।'

इत्यभिधानात्सर्वैरपि श्राद्धानन्तरं कर्त्तव्यमिति प्रतीयते। श्राद्धदिने प्रदोषव्यापिन्यां च तस्यां तत्संभवत्येव । तथापि यदा पूर्वेद्युरेव प्रदोषव्यापिन्यमावास्या श्राद्धयोग्या च द्वितीयदिने तदा पूर्वेद्युरेव प्रदोषे लक्ष्मी यथाविभवं पूजयित्वा दीपदानं च कृत्वा ब्राह्मणादिभ्यश्च भोजनं दत्त्वा स्वयं बान्धवैः सह भोजनं कार्यम्-
'दिवा तत्र न भोक्तव्यमृते बालातुराज्जनात् । 
प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा यथाक्रमम् ।।

दीपवृक्षास्तथा कार्याः शकुया देवगृहेषु च इत्यभिधाय -
'ब्राह्मणान् भोजयित्वादौ संभोज्य च बुभुक्षितान्। अलंकृतेन भोक्तव्यं नववस्त्रोपशोभिना ।।
स्निग्धैर्मुग्धैर्विदग्धैश्च निवृत्तैर्बान्धवैः सह ।
इत्यादित्यपुराणेऽभिधानात् ।

विधेयत्वेऽपि कालविरोधे क्रमस्वानादृत्यत्वात् । वस्तुतस्तु स्वकालप्राप्तश्राद्धानुवादात् क्रमस्यात्राविधानमेव । औत्सर्गिकाखण्डतिथेरेव प्रायोव्यवहारविषयत्वेन तस्य प्राप्तत्वात् । उल्कादानमपि प्रदोष एव ज्योतिर्ग्रन्थे विहितं तत्रैव कार्यम् ।

'तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूतदर्शयोः । 
उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितृणां मार्गदर्शनम् ।।' इति ।
स्पष्टं च पूर्वाग्राह्यत्वमुक्तं तत्रैव ।

"अमावास्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी । 
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका ।।" इति ।

अर्थात्, "अमावस्या को कर्त्तव्य दीपदान यद्यपि 'अपराह्नकाल में पार्वण श्राद्ध के बाद' करे, जैसा कि राजा के कर्त्तव्यों में कहा गया है, 'दीपमालाओं से परिपूर्ण, अंधकार से रहित दोषरहित शुभ प्रदोष काल में कल्याणमयी प्रशस्त रात्रि के आने पर', से प्रतीत होता है कि सभी को श्राद्ध के बाद दीपावली कर्म करना चाहिए। श्राद्ध के दिन यदि अमावस्या प्रदोषव्यापिनी हो तो यह संभव हो सकता है। परन्तु यदि पहले दिन प्रदोषव्यापिनी अमावस्या हो और द्वितीय दिन श्राद्धयोग्य हो तो पहले दिन प्रदोषकाल में लक्ष्मी को पूजकर, दीपदान कर, ब्राह्मणादि को भोजन देकर स्वयं बंधुओं के साथ भोजन करना चाहिए।

आगे कहा है- क्रम का विधान प्रतीत होने पर भी काल का विरोध उपस्थित होने के कारण क्रम का अनादर करना चाहिए। वस्तुतः यहाँ अमावस्या होने पर अपने स्वकाल से प्राप्त श्राद्ध का अनुवाद मात्र है, विधान नहीं, अतः क्रम का भी यहाँ विधान नहीं है। सामान्यतः अखण्डतिथि ही प्रायः व्यवहार की विषय होती है क्योंकि उसी की प्राप्ति होती है।

उल्कादान भी प्रदोषकाल में ही करना चाहिए, ऐसा ज्योतिग्रंथ में बताया गया है। 'सूर्य तुला राशि में स्थित हो और चतुर्दशी और अमावस्या की संधि वाला प्रदोषकाल हो तो, हाथ में उल्का लेकर पितरों को मार्ग दिखाना चाहिए।'

यहीं पर स्पष्ट रूप से पूर्वा को ही ग्राह्य बताया गया है, 'रात्रि में अमावस्या हो और दिन में चतुर्दशी हो तो उसी रात्रि में लक्ष्मी पूजा करनी चाहिए, इसे सुखरात्रिका कहते हैं।"
अन्यच्च जयसिंह कल्पद्रुमादि विविध ग्रन्थ भी प्रदोष एवं अर्धरात्रि व्यापिनी अमावस्या का ही प्रतिपादन दीपावली महोत्सव हेतु करते हैं।

अतः उपरोक्त समस्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि इस वर्ष दीपावली महोत्सव पूरे देश में 31/10/2024 दिन गुरुवार को ही मनाया जाना शास्त्रसम्मत और श्रेयस्कर होगा।

किञ्चित संपादन सहित साभार श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चांगम्।

इति शम्
पण्डित रङ्गनाथ
दधीचाश्रम, सारण्य मंडल।

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