अभी फेसबुक से ही पता चला कि भारतीय न्यायालयों में न्याय की देवी की प्रतिमा के स्वरूप में परिवर्तन किया गया है

अभी फेसबुक से ही पता चला कि भारतीय न्यायालयों में न्याय की देवी की प्रतिमा के स्वरूप में परिवर्तन किया गया है. उनकी नई मूर्ति लगाई गई है, जिसमें आंखों से पट्टी हटी है, तराजू के पलड़े ऊपर नीचे नहीं हैं और हाथ में तलवार की जगह पुस्तक है. और अपनी आदत के विपरीत चंदू मियां ने इसको फटाफट सहमति दे दी है.

    भारतीयता के आग्रह और पश्चिमी प्रतीकों को नकारने की प्रवृति के कारण यह परिवर्तन बहुत आकर्षक लग रहा है. पर प्रश्न उठता है कि इसको चंदू मियां का अनुमोदन कैसे मिल गया बिना मीन मेख के?

पिछली मूर्ति बताती थी कि न्याय भावनाओं के प्रति आँखें मूंद कर, सिर्फ साक्ष्यों के आधार पर दिया जाएगा बिना यह देखे कि सामने कौन है(Objective). वह अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा बताएगा, यानि पलड़े ऊपर नीचे रहेंगे (जो न्याय का काम है, न कि समानता लाना), और उसके हाथ में तलवार है यानि वह दंडित करेगा. 

      अब नया प्रतीक बताता है कि न्याय यह देख कर दिया जाएगा कि सामने कौन खड़ा है (subjective), वह समानता स्थापित करेगा, अच्छे और बुरे को एक समान देखेगा. और वह दंड देने के बजाय शिक्षा देगा... उसके हाथ में तलवार के बजाय पुस्तक है. 

     सत्य भारत और पश्चिम का अलग अलग नहीं होता. न्याय के मानक तो ऑब्जेक्टिव होने ही चाहिए. समानता लाना न्याय का काम नहीं है, और न्याय का उद्देश्य दंड देना है, ना कि सुधार. अमेरिका ने चालीस वर्ष अपराधियों के सुधार की प्रक्रिया में बिता दिए (1950-1990 का काल अमेरिकी न्याय प्रक्रिया में अपराधियों के सुधार और न्यूनतम दंड पर आधारित था, जस्टिस वॉरेन कोर्ट के प्रभाव में). नतीजा कि हत्या की दर चार गुनी हो गई. अभी भारत में वही फिलोसॉफी लाई जा रही है, इसको भारतीयता का रूप देकर. उनको पता है कि भारतीयता के आकर्षण में हम फंसेंगे. 

यह रूपक बिल्कुल पोस्ट मॉडर्निस्ट मानकों के अनुरूप है. आश्चर्य नहीं कि इसको चंदू मियां का समर्थन प्राप्त है.

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