हिंदू समाज के स्व बोध क्यो जाग्रति करना चाहिए ?

*स्व बोध शब्द दो शब्दों स्व और बोध से मिलकर बना है , जहां स्व का अर्थ है --- स्वयं और बोध का अर्थ है --- जानना । इस प्रकार स्व बोध का अर्थ है --- स्वयं को जानना ।*
* *प्रश्नों का मूल प्रश्न है ---- " मैं कौन हूं , मेरे अस्तित्व का क्या मतलब है , मैं क्यों इस धरा - धाम पर आया इत्यादि ?" यही प्रश्न उपनिषदों के मूल में है ।इन्हीं प्रश्नों ने विवेकानंद को , महर्षि रमण को जैसों को उद्वेलित किया । सचमुच ये प्रश्नों के प्रश्न हैं । इन्हीं प्रश्नों के वास्तविक उत्तर खोजना ही स्व बोध है ।*
* *क्या हाड़ - मांस का यह शरीर केवल इंद्रियजनित सुख और भौतिक संसाधनों के संग्रह तक सीमित है अथवा इसके अन्य पहलू भी है ?*
* *उत्तर है कि इस भौतिक सुख - संसाधनों के अतिरिक्त अन्य पहलू भी हैं ।*
* *वर्षा की बूंदें भौतिक दृष्टिकोण से हाइड्रोजन के दो परमाणु और और ऑक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर बनी है । वर्षा की बूंदें सागर से वाष्पित होकर आकाश में जमा होती हैं , फिर वर्षा के दिनों में बारिश की बूंदें बनकर सूखी धरती पर टपकती है और नदी - नाले होते हुए अन्ततः महासागर में अपना अस्तित्व खोकर विशाल सागर बन जाती है । मतलब जहां से चले थे अन्ततः उसी में मिलना वर्षा की बूंदें की नियति है । इस बीच नदी - नालों का भटकाव भी होता है । मनुष्य भी इसी तरह हाड़ - मांस का पुंज है , जिसमें चेतना (वर्षा की बूंद की भांति )का वास होता है ।यह चेतना परमात्मा ( सागर ) का अंश होता है । परमात्मा से बिछड़ने के बाद यह चेतना निकृष्ट - उत्कृष्ट कर्म करती हुई अन्ततः उसी परम चेतना में विलीन होकर पुनः परमात्मा ( सागर की तरह ) बन जाती है ।*
* *मनुष्य एक चेतनशील प्राणी है । सनातन जो शाश्वत है , सत्य है , प्रकृति है , के द्वारा गुण और कर्म नियत किए गए हैं , जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियमों के अनुरूप हैं ।उन्हीं का पालन कर मनुष्य अपनी अधोगामी चेतना को उर्ध्वगामी बना सकता है और अन्ततः उस गुण - कर्मों के निधन परमात्मा में मिल जाता है ।*
* *एक राष्ट्रवादी सनातनी बनकर कोई भी अपनी चेतना को उन्नत कर उस परमात्मा से साक्षात्कार कर सकता है । कहने का अर्थ है कि भौतिक संसाधनों के ऊपर आध्यात्मिक संसाधन का अंकुश रखकर मनुष्य अपना स्व बोध कर सकता है ।*
* *-------नीरज ।*🚩🙏

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