ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और विश्व की वर्तमान परिस्थितियों पर समीक्षात्मक लेख पढ़ें

अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के भारतीय समर्थकों का मानना है कि ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में जहां चीन और रुस का एजेंडा यह है कि इसे पश्चिमी यूरोप एवं अमेरिका विरोधी मोर्चा बनाया जाये, वहीं भारत और दक्षिण अफ़्रीका का एजेंडा यह है कि इसे ग़ैरपश्चिमी यूरोप एवं अमेरिका मोर्चा बनाया जाये।
इसके पीछे का स्पष्ट कारण यह है कि यदि ब्रिक्स को एंटी वेस्ट बनाया गया तो भारत और दक्षिण अफ़्रीका को चीन और रुस का पिछलग्गू बनना पड़ेगा। यह किसी भी प्रकार से भारत के लिए अच्छी स्थिति नहीं होगी। चीन न कभी भारत का विश्वसनीय मित्र रहा है और न ही दुनिया में किसी अन्य देश का। इसलिए भारत कुल मिलाकर फ़िलहाल जो स्थिति है उसमें अपने आप को ऐसे जगह रख रहा है जहां पर यदि कल को अमेरिका में ट्रम्प की वापसी नहीं भी होती है तो भी वह बार्गेन करने की स्थिति में रहे। 
जैसी स्थितियां बन रही है उसे देखकर ऐसा तो प्रतीत हो रहा है कि जल्द ही अमेरिका और कनाडा से एक्सट्रीम लेफ़्ट सरकारों का पतन हो सकता है। ऐसी स्थिति में अमेरिका और कनाडा दोनों फिर से अपने आपकी रीपॉज़िशनिंग करेंगे। इस रिपॉजिशनिंग के बाद अमेरिका शायद फिर से प्रो रशिया प्रो इंडिया एवं एंटी चाइना हो जाये। ऐसी स्थिति में भी भारत को बहुत फ़ायदा है। वेस्ट के एक्सट्रीम लेफ्ट ग्रुप किसी भी तरफ़ से भारत के राष्ट्रवादी सरकार को डैमेज करना चाहते हैं और भारत की आंतरिक राजनीति में दखल दे रहे हैं। किसानों के नाम पर ख़लिस्तानी आतंकी समर्थकों का कई साल तक चलने वाला हुड़दंग तो केवल टिप ऑफ़ आइसबर्ग है। लगातार तीसरी बार मोदी की वापसी और उनके समर्थक दलों की तरफ़ से उन पर पूर्ण विश्वास विशेष रूप से चन्द्रबाबू नायडू और पवन कल्याण की तरफ़ से आश्चर्यजनक रूप से हिंदुवादी बयान देकर यह बताना कि सरकार पाँच साल के लिए आयी है और उसके बाद हरियाणा के प्रचंड वापसी, यह सब भारत सरकार और प्रधानमंत्री के लिए आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है। इसी आत्मविश्वास का कमाल फ़िलहाल ब्रिक्स समिट में दिख रहा है। वेस्ट और अमेरिका का छोटा से छोटा चैनल भी इस पर रोज़ एक घंटे खर्च कर रहा है। 
वेस्ट के तमाम लोगों का मानना है कि भारत में मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी से अधिक कोई प्रोवेस्ट और प्रोअमेरिकन लीडर मिल पाना मुश्किल है जो कि अमेरिका के भाग्य से एक के बाद एक मिलते चले गये, ऐसे में अनावश्यक भारत सरकार को छेड़ना और भारत में सत्ता परिवर्तन की कोशिश करना अमेरिका की तरफ़ से ग़लत निर्णय साबित हुआ। भारत में लोकतंत्र वास्तव में एक्सिस्ट करता है, ऐसे में इसमें अपनी नाक डालना भारत के लोगों को और तेज़ी से मोदी के पक्ष में मोड़ने में ही मदद करेगा। 
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चलने वाली सरकार की एक अपनी विशेषता यह भी है कि यह ग़ैरप्रतिक्रियावादी सरकार है। यह बात वेस्ट के फार लेफ्ट नेताओं को शायद समझ में नहीं आ पायी। ख़ुद भाजपा के कट्टर समर्थक तक जिन मामलों पर सरकार से लाठी उठाने की इच्छा रखने और व्यक्त करने लगते हैं, उस पर केंद्र सरकार कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देती। CAA के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन और किसान के नाम पर हुए खलिस्तान आंदोलन इसके उदाहरण हैं। इतने बड़े आंदोलनों से न किसी महत्व के पार्टी का जन्म हुआ और न ही नेता का। सबसे बड़े किसान नेता को महज़ दो तीन हज़ार वोट मिले जो अपने निकटतम प्रतिद्वंदी नोटा से हज़ार वोट आगे रहा।
पुतिन को इस बात के लिए अवश्य धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने ब्रिक्स को एकजुट दिखाने के लिए, जो की उनका अपना भी स्वार्थ था, भारत चीन के समस्त वर्तमान के विवादों को समाप्त करा दिया। कुल मिलाकर इस कदम से भारत और चीन कम से कम निकट भविष्य में किसी भी युद्ध से दूर रहेंगे। 
भारत के लिए अगला 25 वर्ष महत्व का है। इस दौरान भारत को न तो गलती से कोई गृहयुद्ध चाहिए और न ही बाहरी युद्ध। 
इतना समय भारत को दुनिया के बड़े देशों से बराबरी करने के लिए काफ़ी होगा। ऐसी आशा है कि इस आगामी 25 वर्ष में से कम से कम 9-10 वर्ष का शासन मोदी जी को ही करना है जो कि पूरी तरह लक्ष्य आधारित ग़ैरप्रतिक्रियात्मक शासन होगा। 
प्रधानमंत्री ने अपने पहले शासनकाल के दौरान जो दुनिया में दौड़भाग की थी, उसका सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहा है। 
फ़िलहाल अमेरिका के चुनाव परिणाम का इंतज़ार किया जाये कि उँट किस करवट बैठता है? यदि ट्रम्प की वापसी होती है तो यह भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक अच्छा भविष्य लेकर आएगा।

साभार Bhupendra Singh

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