भारत का इतिहास केवल एक भूभाग की कथा नहीं, बल्कि एक जीवंत सभ्यता का प्रमाण है, जिसने सहस्राब्दियों तक आक्रमणों, प्रतिकूलताओं और षड्यंत्रों के बावजूद स्वयं को नष्ट नहीं होने दिया। परंतु यह भी सत्य है कि पिछले एक हजार वर्षों में हिंदू समाज ने बार-बार बाहरी और आंतरिक हमलों का सामना किया—कभी तलवार के बल पर, कभी मतांतरण के छल से, तो कभी बौद्धिक दासता की जंजीरों में जकड़कर।
मुस्लिम आक्रमणकारियों का मुख्य उद्देश्य केवल राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना नहीं था, बल्कि भारतीय समाज की मूल संरचना को ध्वस्त करना भी था। 8वीं शताब्दी से प्रारंभ हुए इन आक्रमणों ने धीरे-धीरे हिंदू समाज के बौद्धिक और धार्मिक केंद्रों को निशाना बनाया। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया गया। बख्तियार खिलजी ने नालंदा को जलाकर हजारों ग्रंथों को राख में बदल दिया, जिससे हिंदू समाज के शास्त्र और बौद्धिक परंपरा को अपूरणीय क्षति पहुँची।
गुरुकुल केवल शिक्षा का केंद्र नहीं थे, बल्कि यह समाज को नेतृत्व देने वाली व्यवस्था थी। यहाँ धर्म, विज्ञान, खगोलशास्त्र, राजनीति और चिकित्सा तक की शिक्षा दी जाती थी। इस व्यवस्था को ध्वस्त करके हिंदू समाज को बौद्धिक रूप से अपंग बनाने की रणनीति अपनाई गई। परिणामस्वरूप, जो समाज अपने ज्ञान और स्वाध्याय के लिए प्रसिद्ध था, वह धीरे-धीरे बाहरी शासकों पर निर्भर होने लगा।
मुगलों और अन्य मुस्लिम शासकों के बाद जब ब्रिटिश सत्ता ने भारत पर अधिकार किया, तो उन्होंने केवल हथियारों के बल पर नहीं, बल्कि मानसिक दासता की रणनीति अपनाकर हिंदू समाज को नियंत्रित करने का प्रयास शुरू किया। लॉर्ड मैकाले ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू कर भारतीयों को अपनी जड़ों से काटने का षड्यंत्र रचा। उनकी रणनीति यह थी कि गुरुकुल और परंपरागत शिक्षा पद्धति को समाप्त कर दिया जाए और अंग्रेजी भाषा तथा यूरोपीय विचारों पर आधारित एक नई शिक्षा व्यवस्था लागू की जाए। इसका उद्देश्य था—एक ऐसा वर्ग तैयार करना, जो रंग-रूप से भारतीय हो, किंतु सोचने और समझने में पूर्णतः अंग्रेज हो।
इस व्यवस्था का प्रभाव यह हुआ कि हजारों गुरुकुल समाप्त हो गए, ब्राह्मणों को अपमानित और बहिष्कृत किया गया, तथा भारतीयों को यह विश्वास दिलाया गया कि उनकी अपनी शिक्षा प्रणाली पिछड़ी हुई है। परिणामस्वरूप, हिंदू समाज धीरे-धीरे अपनी शास्त्र परंपरा से कटता गया और एक विदेशी भाषा व विचारधारा को अपनाने के लिए विवश हो गया।
1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, किंतु यह स्वतंत्रता केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित थी। विभाजन के बाद भारत को सेकुलर और सोशलिस्ट राष्ट्र के रूप में ढालने का प्रयास किया गया, जिसमें सनातन संस्कृति को हाशिए पर धकेल दिया गया। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से सोवियत संघ से प्रेरित समाजवादी नीतियाँ लागू की गईं, जिसने भारत की आर्थिक स्वतंत्रता को लगभग निष्क्रिय कर दिया। एक ऐसा नियोजन तंत्र विकसित किया गया जिसमें नागरिकों को अपने व्यवसाय या उद्योग स्थापित करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। यह बौद्धिक और आर्थिक नियंत्रण का वह स्वरूप था, जिसने समाज को जड़ता और परावलंबन की ओर धकेला।
1991 का आर्थिक सुधार भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उदारीकरण के कारण देश में व्यापार और उद्योग को बढ़ावा मिला, और धीरे-धीरे हिंदू समाज आर्थिक रूप से सशक्त होने लगा। आज, जब भारत 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है, तब यह स्पष्ट हो चुका है कि जब भी हिंदू समाज को अवसर मिलता है, वह अपनी श्रमशीलता और बुद्धिमत्ता और पुरूषार्थ से शून्य से शिखर तक पहुंच सकता है । आर्थिक समृद्धि के साथ इस युग में धार्मिक चेतना भी जागृत हुई है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सनातन अवधारणा में अर्थ का स्थान सर्वोपरि है, और यही कारण है कि हिंदू समाज की धार्मिक गतिविधियाँ भी अब अधिक संगठित और प्रभावशाली हो रही हैं।
किन्तु यह जागरण उन शक्तियों को स्वीकार्य नहीं, जो सदियों से हिंदू समाज को भ्रमित और विभाजित करने में लगी हैं। जब आक्रमण, मतांतरण और आर्थिक दमन से हिंदू समाज को नष्ट नहीं किया जा सका, तो अब उस पर वैचारिक और सांस्कृतिक प्रहार किए जा रहे हैं।
आज हिंदू परिवार और समाज की सबसे बड़ी शक्ति उसकी स्त्री और उसकी बौद्धिक संरचना है। इतिहास साक्षी है कि जब भी हिंदू समाज संकट में पड़ा, उसकी स्त्रियों ने परिवार और परंपरा को बचाने के लिए असाधारण धैर्य और समर्पण दिखाया। माताएँ और पत्नियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बच्चों को धर्म, संस्कृति और नैतिकता का पाठ पढ़ाती आई हैं। इसी कारण, अब इस स्तंभ को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है।
"नारीवाद", "माय बॉडी, माय चॉइस" जैसे आधुनिक विचारों के नाम पर हिंदू महिलाओं को उनके परिवार, समाज और परंपरा से विमुख किया जा रहा है। यह पश्चिमी अवधारणाएँ स्वतंत्रता के नाम पर स्त्री को परिवार से अलग करने और उसे एक उपभोक्तावादी मानसिकता में ढालने का कार्य कर रही हैं। विवाह, मातृत्व और पारिवारिक मूल्यों को "रूढ़िवादी" और "पितृसत्तात्मक" बताकर एक ऐसा वातावरण निर्मित किया जा रहा है, जिसमें स्त्री का परिवार से स्वाभाविक नाता समाप्त हो जाए।
दूसरी ओर, हिंदू समाज को नेतृत्व देने वाले ब्राह्मण वर्ग को भी लक्षित किया गया है। आधुनिक विमर्श में ब्राह्मणवाद को हर समस्या की जड़ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह कोई संयोग नहीं कि "ब्राह्मणवाद" को समाप्त करने के नाम पर हिंदू धर्म की समस्त संरचनाओं को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है। "आर्य आक्रमण सिद्धांत", "बौद्ध मूलनिवासी थ्योरी" जैसी काल्पनिक धारणाओं को बढ़ावा देकर यह स्थापित करने की कोशिश हो रही है कि हिंदू समाज ऐतिहासिक रूप से शोषक रहा है और इसे खत्म करना ही न्यायसंगत होगा।
इस षड्यंत्र का सबसे भयावह पक्ष यह है कि अब इसे बाहरी शक्तियाँ ही नहीं, बल्कि हिंदू समाज के भीतर के कुछ लोग भी बढ़ावा दे रहे हैं। वामपंथी विचारधारा और कल्चरल मार्क्सवाद के समर्थक इस संघर्ष को "सामाजिक न्याय" का नाम देकर एक नए प्रकार के गृहयुद्ध की भूमिका तैयार कर रहे हैं। वे यह प्रचारित कर रहे हैं कि ब्राह्मणवाद ही सभी सामाजिक बुराइयों की जड़ है, और इसे समाप्त किए बिना समानता संभव नहीं। परिणामस्वरूप, हिंदू समाज को अपनी ही बौद्धिक और धार्मिक नींव के प्रति संदेह होने लगा है।
परंतु यह समय आत्मग्लानि और भ्रम में पड़ने का नहीं, बल्कि पुनरुत्थान का है। हिंदू समाज यदि अपनी संस्कृति, परंपरा और परिवार व्यवस्था की रक्षा करना चाहता है, तो उसे इस वैचारिक युद्ध को समझना होगा। हिंदू समाज का सबसे बड़ा बल उसकी विविधता और समावेशी दृष्टि है। बहुदेववाद और विभिन्न परंपराओं को आत्मसात करने की उसकी क्षमता ही उसे अनूठा बनाती है। यही वह शक्ति है, जिसे समाप्त कर उसे एक किताबी, संवेदनहीन और दिशाहीन समुदाय में बदलने का प्रयास किया जा रहा है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित न रखें, बल्कि उसे सामाजिक चेतना और बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बनाएं। हमारा अस्तित्व केवल मंदिरों और धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली, पर्व-त्योहार, पारिवारिक संबंधों और सामाजिक संरचना में निहित है। यदि हमें अपने धर्म और समाज को सुरक्षित रखना है, तो हमें अपनी जड़ों से पुनः जुड़ना होगा।
हिंदू समाज का उत्थान केवल आर्थिक विकास से संभव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक जागरण और आत्मबोध से भी आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है। जब तक हम अपने परिवार, परंपरा और धर्म की रक्षा के लिए संगठित नहीं होंगे, तब तक यह संघर्ष चलता रहेगा। इतिहास ने यह प्रमाणित किया है कि हिंदू समाज को दबाया जा सकता है, किंतु समाप्त नहीं किया जा सकता। आज हमें केवल यह निर्णय लेना है कि हम इस पुनर्जागरण का हिस्सा बनेंगे या इतिहास की उन भूलों को दोहराएंगे, जिनका परिणाम सदियों तक हमें भुगतना पड़ा।
✍️Deepak Kumar Dwivedi
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