नेतृत्व दिशाहीन है, समाज नहीं



यह बात बार-बार कही जाती है कि हिन्दू समाज दिशाहीन हो चला है। पर क्या सचमुच ऐसा है? क्या वह समाज, जिसने सहस्रों वर्षों की लम्बी रातें सहकर भी अपने अस्तित्व को बचाए रखा, वास्तव में दिशाहीन है? क्या वह समाज, जो आज भी करोड़ों की संख्या में तीर्थों पर उमड़ता है, घर-घर दीप जलाता है, संतान का नामकरण संस्कार करता है, दादी से रामकथा और नानी से कृष्णलीला सुनता है—दिशाहीन है?

सच कहें तो नहीं। समाज आज भी जीवित है—थका हुआ हो सकता है, किंतु मरा नहीं है। भ्रमित हो सकता है, परंतु अपनी जड़ों से पूरी तरह कटा नहीं है। संकट नेतृत्व का है, आत्मा की नहीं।

जब प्रयागराज की रेती पर करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ में डुबकी लगाने आते हैं, तो यह केवल धर्म का उत्सव नहीं होता—यह समाज की आत्मचेतना की गर्जना होती है। वहाँ न कोई सरकार बुलाती है, न कोई विज्ञापन प्रेरित करता है। फिर भी लोग आते हैं—धूल, ठंड, भीड़, असुविधा—सब कुछ सहकर। ऐसा उत्सर्ग केवल एक जागृत समाज ही कर सकता है। यह संयोग नहीं, सनातन की स्मृति का संचार है।

तो प्रश्न यह नहीं है कि समाज में चेतना है या नहीं—प्रश्न यह है कि उस चेतना को दिशा कौन देगा? नेतृत्व कहाँ है?

आज भारत में जो संकट है, वह शासन का नहीं, श्रद्धा का है। नेताओं को समाज पर विश्वास नहीं, और समाज को नेताओं से आशा नहीं। सत्ता की कुर्सियाँ भरी हैं, परंतु उनमें बैठे लोग आत्महीन हैं—न धर्म का बोध, न इतिहास की समझ, न संस्कृति का भाव। जो नेतृत्व होना चाहिए था—वह कहीं खो गया है। और जो दिखता है—वह मार्गदर्शक नहीं, केवल प्रबंधक है।

हिन्दू समाज में तीन प्रकार की चेतना एकसाथ जीवित हैं। एक वर्ग ऐसा है जो आज भी धर्म के प्रति समर्पित है—प्रातः पूजन करता है, उत्सवों में भाग लेता है, गौसेवा, मंदिर, भागवत, रामायण—इनसे जुड़ा है। दूसरा वर्ग वो है, जो स्वयं को आधुनिक समझता है—सेकुलरवाद, वामपंथ और पश्चिमी मूल्य जिसका मार्गदर्शक है। और एक तीसरा, सबसे बड़ा वर्ग—जो न पूरी तरह जागरूक है, न पूरी तरह उदासीन। यह वही वर्ग है, जो समय के साथ बहता है। समाज का यही वर्ग परिवर्तन की कुंजी है।

वास्तव में, समस्या समाज में नहीं—उसके प्रतिनिधियों में है। जनता धर्मपरायण है, पर नेता धर्म से डरते हैं। प्रशासनिक अधिकारी शास्त्र नहीं पढ़ते, केवल कानून पढ़ते हैं। नीति-निर्माता को संस्कृति का ज्ञान नहीं, केवल आंकड़ों की समझ है। यही वह रिक्तता है, जहाँ से दिशाहीनता जन्म लेती है।

भारत में नीतियाँ बनती हैं, योजनाएँ चलती हैं, घोषणाएँ होती हैं—पर उनमें आत्मा नहीं होती। वे चलती हैं, परंतु प्रेरित नहीं करतीं। उनका आधार आंकड़े होते हैं, आदर्श नहीं। क्योंकि जो योजनाकार हैं—उनके पास दृष्टि नहीं, केवल दायित्व है। वे समाज के स्वभाव को नहीं समझते—केवल उसके व्यवहार को आंकते हैं।

यदि भारत को पुनः उसका आत्मस्वरूप देना है, तो केवल समाज को नहीं—नेतृत्व को भी संस्कारित करना होगा। और यह संस्कार पाठशालाओं, कोचिंग संस्थानों या यूट्यूब वीडियोज़ से नहीं होगा—यह तो परिवार से, समाज से, और सबसे ऊपर धार्मिक मूल्यों की अनुभूति से होगा।

जब तक देश की नौकरशाही, राजनीति और न्याय-व्यवस्था में ऐसे लोग नहीं आएँगे जो केवल योग्य ही नहीं, योग्य + चरित्रवान + धर्मनिष्ठ हों—तब तक समाज की शक्ति व्यर्थ जाती रहेगी।

समस्या यह नहीं कि हमारे पास लोग नहीं हैं—समस्या यह है कि वे समाज सेवा में हैं, सत्ता सेवा में नहीं। आज आवश्यकता है उन दस करोड़ लोगों की, जो अपने भीतर धर्म की आग, सत्य की ध्वनि और समाज के प्रति श्रद्धा रखते हों—वे नेतृत्व के पथ पर बढ़ें। केवल आलोचना न करें—स्थान ग्रहण करें।

समाज जाग्रत है, उसे बस सन्मार्ग पर ले चलने वाला चाहिए। और यदि आप धर्मनिष्ठ हैं, तो वह भूमिका आपकी है।

"समाज की पीड़ा यह नहीं कि वह सोया है, पीड़ा यह है कि वह जाग्रत होकर भी अनाथ है।
नेतृत्व केवल सिंहासन नहीं, समाज का दायित्व है—और यदि आपमें धर्म है, तो वही आपका पथ है।"

हिन्दू समाज की मूल आत्मा “धर्म” है—वह धर्म जो केवल आचार नहीं, अपितु चरित्र निर्माण की वह प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को 'अहं' से 'वयं' की ओर ले जाती है। यह समाज यदि केवल अनुगामी रहे, तो उसकी शक्तियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं; पर जब वह नेतृत्व को दिशा देता है, तो वह समाज केवल अनुयायी नहीं, नीति का निर्माता बन जाता है।

आज नेतृत्व दिशाहीन नहीं, बल्कि धर्मशून्य है—और यह शून्यता केवल आलोचना से नहीं, अपितु जीवनमूल्यों की सक्रिय पुनर्स्थापना से भरी जा सकती है। धर्मनिष्ठ हिन्दू समाज को अब यह संकल्प लेना होगा कि वह केवल चुनावी सहभागी नहीं, नीतिगत निर्णायक बनेगा। इसके लिए सबसे पहला चरण है—राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व को पुनः 'धर्मबुद्धि' की ओर मोड़ना।

प्रशासनिक तंत्र उस भूमि में फलता है जहाँ नीतियों का आधार लोकधर्म और राष्ट्रधर्म पर हो। धर्मनिष्ठ समाज को यह पहचानना होगा कि प्रशासन केवल सरकारी आदेशों का पालन करने वाली व्यवस्था नहीं है, वह उस लोक का प्रतिनिधि भी है जिसमें वह कार्य करता है। ऐसे में एक जागरूक हिन्दू समाज को—

अपने शासकों को प्रश्न पूछने चाहिए, न कि केवल समर्थन देना चाहिए;

नीति निर्धारण में सक्रिय संवाद करना चाहिए, केवल याचना नहीं;

प्रशासनिक पदों पर अपने कर्तव्यनिष्ठ, संस्कारशील युवाओं को प्रेरित करना चाहिए, ताकि वे भीतर से ही व्यवस्था का शुद्धिकरण करें।

हमने यह मान लिया है कि प्रशासन में धर्म का कोई स्थान नहीं—जबकि मनुस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, और शान्तिपर्व जैसे ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि शासक वही श्रेष्ठ है जो धर्म के अनुरूप राजकाज चलाए, और न्याय वही उचित है जो समाज की आत्मा से मेल खाता हो। हमें अपने शिक्षित युवाओं को UPSC, PCS, न्यायिक सेवा और शासन तंत्र में प्रवेश के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि वे केवल कर्मचारी न बनें, अपितु धर्म की दृष्टि से प्रशासन को दिशा देने वाले राजऋषि बन सकें।

राजनीतिक नेतृत्व की बात करें, तो हिन्दू समाज को अब उस कर्तव्य की पुनरावृत्ति करनी होगी जो कभी महर्षि चाणक्य ने किया था। केवल जननेता बनाना पर्याप्त नहीं, धर्मनिष्ठ जननेता बनाना आवश्यक है—और यह कार्य केवल दलों से नहीं होगा, बल्कि संगठित समाजचेतना से ही संभव है।

हमें यह स्मरण रखना होगा कि यदि हिन्दू समाज अपने धर्मशास्त्र, राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र के संतुलित मंथन के साथ नेतृत्व निर्माण में प्रवृत्त नहीं हुआ, तो जो शून्यता है, वह केवल सत्ता की नहीं, संस्कृति की पराजय बन जाएगी। धर्मनिष्ठ हिन्दू को चाहिए कि वह—

जननेताओं को सनातन मूल्य आधारित विमर्श से जोड़ें,

लोकमत को केवल लाभ नहीं, नीति पर केंद्रित करें,

हिन्दू जीवन मूल्यों पर आधारित राजनीतिक बौद्धिक मंचों की रचना करें,

आन्दोलन, संगोष्ठी, लेखन, जनसंवाद और दायित्व आधारित मंचों से नेतृत्व को बाध्य करें कि वे धर्म और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी रहें।

हमें “रामराज्य” की कल्पना केवल गूढ़ भावुकता नहीं, अपितु नीति, धर्म, और व्यावहारिक व्यवस्था का समन्वय बनाकर प्रस्तुत करनी होगी। इसके लिए धर्मनिष्ठ समाज को बुद्धिजीवी वर्ग तैयार करना होगा, लोकनीति का पाठ पढ़ाना होगा, और राजनीतिक संवाद को पुनः सांस्कृतिक चेतना से जोड़ना होगा।

नेतृत्व दिशाहीन तभी तक है जब तक समाज मौन है। पर जब धर्मजागृत समाज उसे जागृत करता है, तब सत्ता स्वयं विनम्र होकर समाज के द्वार पर उत्तरदायित्व माँगती है। यही वैदिक भारत की परंपरा थी, यही रामराज्य का रहस्य था, और यही पुनः भारत की वैचारिक पुनर्रचना का आधार हो सकता है। 

✍️दीपक कुमार द्विवेदी

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