दिग्भ्रमित समाज नहीं, दिशाहीन नेतृत्व है समस्या का मूल


प्रातःकाल मैंने जो विचार लेख के रूप में प्रस्तुत किए थे, आज दोपहर वक़्फ़ संशोधन अधिनियम के विरुद्ध दायर याचिका पर उच्चतम न्यायालय में हुई सुनवाई ने उसे सत्य सिद्ध कर दिया। यह स्पष्ट हो गया कि हमारा समाज दिशाहीन नहीं है, अपितु नेतृत्व ही पथभ्रष्ट हो चला है। चाहे वह समाज का प्रतिनिधि हो अथवा शासन-प्रशासन, विधायिका हो या कार्यपालिका, न्यायपालिका हो या मीडिया—सर्वत्र नेतृत्व की ही भ्रांति परिलक्षित होती है। ग्राम का सरपंच हो अथवा राज्य का मुख्यमंत्री—जैसे बंगाल में ममता बनर्जी—सभी सेक्युलरवाद और समाजवाद नामक विषाणुओं से ग्रसित प्रतीत होते हैं। इन्हें धर्म और अधर्म का भेद ज्ञात नहीं; यह म्लेच्छवृत्ति भारत की आत्मा सनातन धर्म के विपरीत कार्यरत है।

तमिलनाडु की सरकार, जो "द्रविड़ पहचान" के आवरण में भारत से पृथक्करण की भूमिका रच रही है, कल भारत से स्वायत होने हेतु समिति का गठन कर चुकी है। विचार कीजिए—यह परिस्थिति कितनी भयावह है। आज जब सत्ता भाजपा के अधीन है, तब भी यदि सनातन पर प्रहार हो रहे हैं, तो कल जब भाजपा सत्ता में नहीं रहेगी, तब स्थिति की कल्पना मात्र से भय होता है। सेक्युलरवाद और समाजवाद के नाम पर ऐसा विष घुल चुका है कि समस्त तंत्र सड़न की अवस्था में पहुँच चुका है। 

हिंदू समाज आज भी अपनी परंपरा, संस्कृति और धर्म के प्रति उतना ही निष्ठावान है जितना वह सहस्राब्दियों पूर्व था। उसने अनगिन संघर्ष सहे हैं, किन्तु कभी अपने मूल स्वरूप से विचलित नहीं हुआ। किंतु जब उसका नेतृत्व, चाहे वह राजनैतिक हो, न्यायिक हो या बौद्धिक, दिशाहीन हो जाए, तो उसका परिणाम दारुण होता है। आज इसी दारुण परिणति को हम अपने समक्ष सजीव रूप में देख रहे हैं।

वक्फ अधिनियम—एक ऐसी व्यवस्था जिसे औपनिवेशिक काल में एक विशेष समुदाय की धार्मिक संस्थाओं को लाभ पहुँचाने हेतु सृजित किया गया—आज भी भारतीय विधिक व्यवस्था की रगों में बसी हुई है। यह अधिनियम हिंदू मठों, मंदिरों या धार्मिक न्यासों पर लागू नहीं होता, किन्तु वक्फ बोर्ड को विशेषाधिकार प्राप्त हैं कि वह किसी भी भूमि को एकतरफा 'वक्फ संपत्ति' घोषित कर सकता है—बिना किसी न्यायिक परीक्षण या पक्षकार की सहमति के।

जब केंद्र सरकार इस अन्यायपूर्ण प्रावधान में परिवर्तन करने का प्रयास करती है, तो देश के वरिष्ठ अधिवक्ता—जैसे अभिषेक मनु सिंघवी, कपिल सिब्बल—उसका विरोध करते हुए न्यायालय में खड़े होते हैं। आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि वे यह करते हैं; आश्चर्य इस बात पर है कि उन्हें सुनने के लिए न्यायालय तत्पर है, और उनके तर्कों को संवैधानिक 'मूल्यों' की ओट में वैधता भी प्रदान करता है।

आज न्यायालय पूछता है—"क्या किसी हिंदू ट्रस्ट में मुसलमान को ट्रस्टी बनाया जा सकता है?" यह प्रश्न जितना सरल प्रतीत होता है, उतना ही घातक है। क्या अब न्यायपालिका धर्म को उसकी आध्यात्मिक परिभाषा से निकाल कर राजनीतिक व्याख्या के आधार पर तौलने लगी है? क्या यह संविधान की उस मूल भावना के विपरीत नहीं है, जो 'समानता' की बात करती है, पर 'विभेदकारी विशेषाधिकारों' को बढ़ावा नहीं देती?

रामजन्मभूमि के संदर्भ में प्रमाण की माँग करने वाली वही न्यायपालिका आज कहती है—"700 वर्ष पूर्व की वक्फ संपत्ति के दस्तावेज कहाँ से लाओगे?" क्या यह न्याय है या विवेकहीन तुष्टिकरण?

सत्य यह है कि भारतीय लोकतंत्र का तंत्र—चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका—आज भी औपनिवेशिक मानसिकता और सेकुलर भ्रमजाल से ग्रस्त है। 2014 के पश्चात राष्ट्र के भीतर सांस्कृतिक जागरण की लहर अवश्य उठी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने इस राष्ट्र को एक गौरवमयी सांस्कृतिक पहचान प्रदान की है। किंतु यह जागरण अभी समाज की चेतना तक सीमित है; तंत्र और नेतृत्व के स्तर पर यह चेतना अभी भी उपहास, संशय और भय के आवरण में बंदी है।

भारत की राजनीति में जिस प्रकार से इस्लामी तुष्टिकरण को राजनीतिक साधन के रूप में प्रयोग किया गया है—तमिलनाडु में 'संप्रभु राष्ट्र' की घोषणाएँ, बंगाल में कट्टरपंथियों के हाथों सत्ता का समर्पण, और केरल में लव जिहाद जैसे षड्यंत्रों की अनदेखी—यह सब दर्शाता है कि समस्या समाज में नहीं, नेतृत्व की आत्मा में है।

वक्फ बोर्ड की संरचना और कार्यप्रणाली, इस देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर ही प्रश्नचिन्ह है। हिंदू धर्म की संस्थाएँ—चाहे वह मठ हों, मंदिर हों या गुरुकुल—राज्य के नियंत्रण में हैं; जबकि वक्फ एक ऐसी सत्ता बन चुका है जो राज्य से परे, न्यायालय की परिधि से भी परे, एक समानांतर व्यवस्था चला रहा है। और यह स्थिति केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, अपितु नीति-निर्माण में अंतर्निहित पक्षपात का दुष्परिणाम है।

इस संकट का समाधान केवल सुधारवाद से नहीं होगा। यह एक नीतिज्ञ क्रांति की माँग करता है—जहाँ नेतृत्व सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा हो, न्याय शास्त्रसम्मत हो, और प्रशासन धर्मनिष्ठ हो। यह कार्य केवल सरकारों से नहीं होगा, इसके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता वाले नेतृत्व का उदय अनिवार्य है।

वर्तमान व्यवस्था समाज को दोषी ठहराकर स्वयं को पवित्र घोषित करती है, जबकि सत्य यह है कि समाज अभी भी अनुशासित, सहनशील और राष्ट्रभक्त है। दोष है उस नेतृत्व का, जो या तो भयग्रस्त है, या भ्रमित है, या जानबूझकर जनहित के विरुद्ध कार्य कर रहा है।

इसलिए पुनः दोहराना आवश्यक है—समाज दिग्भ्रमित नहीं है, अपितु नेतृत्व दिशाहीन है। जब तक यह नेतृत्व अपने मूल धर्म—'राष्ट्रधर्म'—का स्मरण नहीं करेगा, तब तक वक्फ अधिनियम जैसे अन्यायपूर्ण प्रावधान, न्यायपालिका के असंतुलित निर्णय, और प्रशासनिक तुष्टिकरण हमारी सामाजिक समरसता को विखंडित करते रहेंगे।

अब समय आ गया है कि हम तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों से ऊपर उठकर, एक दीर्घकालिक सांस्कृतिक दृष्टि को स्थापित करें—जो धर्मसम्मत हो, न्याययुक्त हो, और भारत की आत्मा के अनुकूल हो।

✍️ Deepak Kumar Dwivedi

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