22 अप्रैल 2025 को कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में हुए आतंकी हमले ने देश की आत्मा को झकझोर दिया। चार आतंकवादियों ने हिंदू पर्यटकों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमें 26 निर्दोष हिंदू मारे गए और कई घायल हुए । हमलावरों ने पुरुषों को महिलाओं और बच्चों से अलग कर, उन्हें इस्लामी आयतें पढ़ने के लिए कहा; जो ऐसा
नहीं कर सके, उन्हें बेरहमी से मार डाला गया, तब एक बार फिर इस देश की आत्मा कराह उठी। देश भर में आक्रोश फूटा, समाचार चैनलों पर बहसें चल रही है , और ट्विटर से लेकर आम लोगों की बीच , पाकिस्तान को सजा देने की मांग उठ रही है । सरकार ने भी कुछ साहसिक निर्णय लिए—सिंधु जल संधि को स्थगित करने की बात हुई, पाकिस्तान उच्चायोग को बंद करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। यह सब स्वागतयोग्य है, किंतु क्या यह पर्याप्त है?
प्रश्न यह नहीं है कि पाकिस्तान पर कार्यवाही होगी या नहीं, प्रश्न यह है कि क्या हम उस वैचारिक विष-बीज को पहचानते हैं जिससे यह जिहाद उपजा है?
पाकिस्तान एक देश है, लेकिन उससे पहले वह एक विचार है—एक ऐसा विचार, जो भारत की सनातन संस्कृति को मिटाकर, उसकी भूमि पर एक मजहबी साम्राज्य की नींव रखना चाहता है। यह विचार ‘गजवा-ए-हिंद’ का है—वह मजहबी आकांक्षा, जिसमें भारत को इस्लाम के अधीन लाने की पवित्रता बताई जाती है। यह विचार खैबर से शुरू नहीं होता, यह भारत के भीतर ही जन्मा, पला-बढ़ा और फिर खून से सींचा गया।
1888 में सर सैयद अहमद खाँ ने कहा था कि “हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकतीं,” उसी दिन इस विचार की औपचारिक नींव पड़ गई थी। जिन्ना उसका राजनैतिक चेहरा बने, और मुस्लिम लीग उसका औजार। भारत के अधिकांश मुसलमानों ने उसका समर्थन किया, पाकिस्तान बन गया, लेकिन विचार रुका नहीं। विभाजन हुआ, पर विभाजन की प्रेरणा भारत के अंदर ही रह गई।
सच यह है कि पाकिस्तान केवल एक भूगोल नहीं है; वह एक विचार है—एक मजहबी राज्य की अवधारणा, जो "ग़ज़वा-ए-हिन्द" के स्वप्न से प्रेरित होकर जन्मा था। यह विचार सर सैयद अहमद ख़ान के भाषणों में उभरा, जिनमें उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम को दो अलग कौमें बताया, परंतु उसका ठोस राजनीतिक रूप उस विश्वविद्यालय के प्रांगण में तैयार हुआ जिसे आज हम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जानते हैं। वहीं से मुस्लिम लीग को वैचारिक पोषण मिला, वहीं जिन्ना के समर्थक तैयार हुए, और वहीं से 1940 में लाहौर प्रस्ताव की ओर बढ़ा गया, जिसने भारत के विभाजन की पटकथा लिखी।
यह भूलना आत्मघाती होगा कि पाकिस्तान के निर्माण में 99% मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को वोट दिया था। विभाजन के बाद भी जब भारत में 80% मुसलमान रह गए, तब दिल्ली, लखनऊ और कोलकाता की गलियों में यह नारा गूंजा—
"लड़के लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिन्दुस्तान।"
विभाजन से पहले देश में एक आत्मघाती विचार था—"हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती।" और आज़ादी के बाद उस विचार ने नया रूप ले लिया—"हिंदू मुस्लिम एकता के बिना भारत की प्रगति संभव नहीं।" इस विचार को पोषित करने वाली राजनीतिक शक्तियाँ, बौद्धिक वर्ग और मीडिया यह मानने को तैयार ही नहीं कि भारत के भीतर ही अनेक मिनी पाकिस्तान उग आए हैं, जहाँ प्रशासन का भी कोई प्रभाव नहीं चलता, और पुलिस भी जाने से कतराती है।
क्या यह सत्य नहीं कि 1980 के बाद से भारत के अधिकांश नगरों में एक न एक बार बम विस्फोट हुए? क्या यह भी असत्य है कि इन विस्फोटों के पीछे स्थानीय जिहादी नेटवर्क और पाकिस्तान समर्थित स्लीपर सेल्स थे, जिन्हें संरक्षण और मौन समर्थन इसी देश की नागरिकता प्राप्त लोगों से मिला?
आज भारत को जिन मोर्चों पर एक साथ संघर्ष करना पड़ रहा है, वे केवल "ढाई मोर्चे" नहीं हैं। वह संघर्ष पाँच मोर्चों पर है—
1. इस्लामी जिहाद,
2. वामपंथी वैचारिक विष,
3. ईसाई मिशनरी एजेंडा,
4. सेकुलर राजनीतिक अवसरवाद,
5. और जातिवादी विघटनकारी तत्व।
हमारे भीतर के ये शत्रु ही सबसे घातक हैं, क्योंकि ये "अपने" होने का आवरण पहनते हैं और राष्ट्र की जड़ें काटते हैं।
जब तक हम इस संघर्ष को "पाकिस्तान बनाम भारत" के सीमित दायरे में समझते रहेंगे, हम मूल समस्या से आँखें मूँदते रहेंगे। पाकिस्तान पर हर बार कार्यवाही होगी, फिर कोई बम फटेगा, फिर कोई नरसंहार होगा, फिर वही आक्रोश और फिर वही भूल। यह चक्र तभी टूटेगा जब हम यह स्वीकार करें कि समस्या पाकिस्तान नहीं—पाकिस्तान का विचार है। और वह विचार आज भी हमारे विश्वविद्यालयों, मस्जिदों, मदरसों और मीडिया के एक हिस्से में जीवित है।
हमें शत्रु का नाम, स्वरूप, और उसकी चाल पहचाननी होगी। जब तक हम स्पष्ट रूप से यह स्वीकार नहीं करेंगे कि इस्लामिक जिहाद और उसकी वैचारिक प्रेरणाएँ इस देश की आत्मा के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए हैं, तब तक हम केवल प्रतिक्रियात्मक राजनीति करेंगे, समाधान नहीं खोजेंगे।
हम अक्सर भूल जाते हैं कि “लड़के लिया पाकिस्तान, हँस के लेंगे हिंदुस्तान” जैसा नारा स्वतंत्रता के बाद भारत की सड़कों पर खुलकर लगायें गये थे । और आज भी यह नारा कभी जामा मस्जिद के गलीचों में, तो कभी दिल्ली के शाहीन बाग़ों कभी दिल्ली जेएनयू युनिवर्सिटी में भारत तेरे टुकड़े होंगे के रूप में, तो कभी UAPA के अभियुक्तों की गलीों में सुनाई देता है। ये आवाजें बंदूक की गोली से ज़्यादा ख़तरनाक हैं, क्योंकि ये आत्मा को छलनी करती हैं और समाज की जड़ों को खोखला करती हैं।
भारत के हर बड़े आतंकी हमले में किसी न किसी रूप में देश के भीतर के सहयोगियों की भूमिका उजागर हुई है—कभी सिमी, कभी PFI, कभी ISIS के कनेक्शन। फिर भी हम केवल पाकिस्तान को गाली देकर शांत हो जाते हैं, जैसे बीमारी की जड़ नहीं, उसका लक्षण मिटा देने से रोग समाप्त हो जाएगा।
दरअसल, आज हमारा संघर्ष किसी देश से नहीं, एक मानसिकता से है—वह मानसिकता जो कुरान के कुछ कट्टरपंथी पाठों को हथियार बनाकर पूरी दुनिया को ‘दारुल-इस्लाम’ बनाने का सपना देखती है। यह संघर्ष केवल सीमा पर नहीं, विश्वविद्यालयों, मीडिया, न्यायपालिका, मस्जिदों, NGO और अब डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर लड़ा जा रहा है।
शत्रु हमारे भीतर है—हमारी गली में, हमारी संसद में, हमारे पाठ्यक्रमों में। वह वेश बदलता है—कभी पत्रकार बनता है, कभी दलितों का नेता, कभी सामाजिक कार्यकर्ता। पर उसका उद्देश्य केवल एक होता है—हिन्दू समाज को आत्मग्लानि में डुबोकर, उसे उसकी संस्कृति से काट देना।
सवाल उठता है—क्या हम जानते हैं कि हम किससे युद्ध कर रहे हैं? और क्या यह युद्ध केवल सुरक्षा बलों का है, या आम नागरिक का भी?
शत्रु-बोध इसलिए आवश्यक है क्योंकि जो समाज अपने शत्रु को पहचानता नहीं, वह संहार के मार्ग पर चलता है।
शत्रु-बोध इसलिए आवश्यक है क्योंकि जो राष्ट्र केवल सहिष्णुता को धर्म मान लेता है, वह पहले अपनी संस्कृति खोता है, फिर अस्तित्व।
और शत्रु-बोध इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि भारत कोई भूगोल नहीं—यह एक चेतना है, एक सभ्यता, एक ऋषियों की तपोभूमि, और उसकी रक्षा केवल तलवार से नहीं, विचार से होती है।
यदि हमें आज अपनी मातृभूमि को, अपनी सभ्यता को, अपने भविष्य को सुरक्षित रखना है, तो हमें शत्रु को केवल नाम से नहीं, मन से पहचानना होगा।
हमें यह समझना होगा कि शत्रु केवल वह नहीं जो AK-47 लेकर आता है, वह भी शत्रु है जो संविधान का सहारा लेकर तुम्हारी संस्कृति को विषाक्त करता है।
वह भी शत्रु है जो लोकतंत्र की आड़ में मजहबी कानूनों की मांग करता है, और वह भी जो तुम्हारे बच्चों को भारत की गौरवशाली परंपरा से काट देता है।
यह युद्ध लंबा है, निर्णायक है, और अब व्यक्तिगत भी है।
अब हर हिन्दू को यह तय करना होगा कि वह केवल पीड़ित रहेगा, या सजग नागरिक बनकर अपने राष्ट्र के लिए खड़ा होगा।
अब शत्रु-बोध कोई वैचारिक विकल्प नहीं, राष्ट्र की रक्षा का प्रथम चरण है।
यह जानना आवश्यक है—क्योंकि अगली बार यदि कोई हिन्दू घाटी में मारा गया, तो यह न पूछिए “क्यों?” बल्कि स्वयं से पूछिए—“मैंने क्या किया था उसे बचाने के लिए?”
✍️दीपक कुमार द्विवेदी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें