समस्या के मूल से विमर्श कब आरम्भ करोगे?

समस्या के मूल से विमर्श कब आरम्भ करोगे?
किससे संघर्ष करोगे? किसे परिवर्तित करोगे? क्या कभी मूल समस्या की ओर दृष्टि डालने का साहस करोगे?
पिछले ढाई सहस्र वर्षों से यह पृथ्वी कुछ अब्राहमिक, आसुरी शक्तियों के क्रूर आघातों से पीड़ित है, जो सम्पूर्ण मानवता को निगलने हेतु आतुर हैं। इनके पूजन-पद्धति, कर्मकांड, नाम, प्रतीक तथा किताबें भिन्न हो सकती हैं, परंतु इनकी ‘आसमानी किताबों’ का मूल मन्तव्य एक ही है— "हमारे मजहब को स्वीकार करो, अन्यथा मृत्यु का वरण करो।"

इन किताबों में उद्घोषित किया गया है कि— "जो हमारे मत का अनुयायी नहीं, उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है।"

यही कारण है कि आज ही जम्मू-कश्मीर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल ‘पहलगाम’ में धर्म पूछकर 28 निःसहाय हिन्दू पर्यटकों की नृशंस हत्या कर दी गई।

वह जिहादी क्यों बना? धर्म पूछकर गोली चलाने वाली सोच कहाँ से आती है? उसमें यह घातक साहस कैसे आया? वह आत्मघाती हमलावर किस ‘स्वर्ग’ की आशा में स्वयं को विस्फोटित कर देता है?

यह सबकुछ उन ‘आसमानी किताबों’ से जन्म लेता है जिनमें लिखा है—
“काफ़िरों को समाप्त करो, मूर्तिपूजकों का अन्त करो, जब तक काफ़िर जीवित हैं तब तक क़यामत नहीं आएगी, और काफ़िरों का कत्ल करने वाले को जन्नत प्राप्त होगी।”

परन्तु हम इस मूल सत्य को स्वीकारने से सदैव कतराते हैं।
जैसे ही कोई जिहादी हिंदू की हत्या करता है, उसके कुछ ही क्षणों में 'कैंडल मार्च' निकालकर उसकी कुकर्मों को ढंकने का खेल शुरू होता है। कश्मीर के पहलगाम की आज घटना के कुछ देर बाद आज वही खेल शुरू हुआ है। यह सब कुछ घटना होने के बाद होता है। पूरा इस्लामी वामपंथी इको सिस्टम सक्रिय हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि एक जिहादी हिंदू की हत्या धर्म पूछकर, दूसरा इस घटना के विरोध में सड़कों पर कैंडल मार्च निकालेगा, तीसरा जिहादी की पैरवी कोर्ट में करेगा। मीडिया और सोशल मीडिया में भावुक लोग पाकिस्तान को दोष देकर, और सरकार में 10 से 50 आतंकवादियों को मारने की बात करेंगे और शांत बैठ जाएंगे। वे मूल समस्या की बात नहीं करेंगे। यह मानसिकता कहां से आती है? किस आसमानी किताब से आती है?"

इस्लामी व्यवहार का यही इतिहास है— पहले मारेंगे, फिर ‘विक्टिम कार्ड’ खेलेंगे।
और जब तक हम इन अब्राहमिक आसमानी किताबों के कथित दिव्यत्व पर प्रश्न नहीं उठाएँगे, उनकी विषबेलों को उजागर नहीं करेंगे, तब तक इस धरती पर शांति असंभव है।

हमें यह भी समझना होगा कि संविधान के नाम पर, सेकुलरिज़्म के नाम पर, या किसी विदेशी विचारधारा के माध्यम से हमारे समाज का ‘किताबीकरण’ किया जा रहा है।
हमें इसका प्रतिकार करना ही होगा। हमें चाहिए कि हम पुनः अपनी श्रुति, स्मृति, पुराण, परम्परा पर गौरव करें।
हमें चाहिए कि हम अपना स्व-बोध, शत्रु-बोध, इतिहास-बोध और कर्तव्य-बोध जागृत करें।

केवल तभी हम उन आसमानी किताबों के सत्य को उजागर कर सकेंगे।

आज कश्मीर में जो हुआ वह कोई नवीन घटना नहीं है—
2020 में दिल्ली जलाया गया,
2002 में गोधरा में निहत्थे कारसेवकों को जला दिया गया,
कुछ सप्ताह पूर्व मुर्शिदाबाद में हिन्दुओं की हत्या हुई।
यह सब "मजहबी जिहाद" का ही निरन्तर रूप है।

और यह तब तक होता रहेगा जब तक हम साहसपूर्वक यह नहीं कहेंगे कि—
“समस्या किसी सरकार, एजेंसी या संस्था में नहीं, समस्या स्वयं उन आसमानी किताबों में है, जो सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा बन चुकी हैं।”

चाहे वह इस्लाम की किताबें हों, चाहे चर्च की बाइबिल, चाहे वामपंथी घोषणापत्र—
सभी अब्राहमिक विचारधाराएँ मानवता को समाप्त करने पर तुली हैं।

वे तर्क नहीं सुनते, सत्य नहीं स्वीकारते। वे केवल अपने विश्वास को थोपना जानते हैं।
यदि हम आज भी मूल कारण की उपेक्षा करते रहेंगे तो 1947 का भारत-विभाजन एक छोटी त्रासदी लगेगी; भविष्य में और भी भीषण संकट हमारे द्वार पर होगा।

अतः यदि इस भारतभूमि को बचाना है, सनातन धर्म की रक्षा करनी है, मानवता को संरक्षित रखना है— तो हमें अब्राहमिक आसमानी किताबों के वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित करना ही होगा।

यह सत्य की सेवा होगी। यह धर्म की सेवा होगी। और यह मानवता की रक्षा होगी।
दूसरों पर दोषारोपण करके समाधान संभव नहीं—
समाधान केवल सत्य बोलने, सत्य सुनने और सत्य स्वीकारने में है।

इसलिए अब समय आ गया है कि इन आसमानी किताबों पर सार्वजनिक विमर्श आरम्भ हो।
केवल तभी समाधान संभव है।

✍️ दीपक कुमार द्विवेदी

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