हमारा शत्रु पाकिस्तान नहीं है।
हमारा शत्रु मुसलमान भी नहीं है, क्योंकि मुसलमान स्वयं भी इस्लाम की विकृत विचारधारा से पीड़ित है।
हमारा वास्तविक शत्रु है — इस्लाम का विचार, वह विचार जो पाकिस्तान के जन्म का आधार बना, और आज भी जिहाद और फतवे के नाम पर रक्तपात का जहर फैलाता है।
पाकिस्तान यदि हजार टुकड़ों में भी बँट जाए, यदि नक्शे से भी मिट जाए, फिर भी वह बीज जो 'पाकिस्तान' नामक वृक्ष को सींचता है, जीवित रहेगा।
समस्या किसी भूभाग की नहीं है। समस्या उस विचारधारा की है, जो कहती है — जब तक क़यामत नहीं आएगी, तब तक जन्नत नहीं मिलेगी।
और जन्नत भी उन ७२ फिरकों में से केवल एक फिरके वालों को ही मिलेगी — बाकी सब जहन्नुम में जाएँगे।
यह कोई साधारण धार्मिक विश्वास नहीं है, यह एक युद्ध-संस्कृति है।
जब तक हम इस 'क़यामत-जन्नत' की काल्पनिक अवधारणा पर प्रहार नहीं करेंगे, जब तक इस्लाम के भीतर छिपे इन कट्टर और हिंसक सिद्धांतों को उजागर नहीं करेंगे, तब तक रक्तपात की यह श्रृंखला चलती रहेगी — कभी कश्मीर में, कभी बंगाल में, कभी दिल्ली के उपनगरों में।
समस्या पाकिस्तान नहीं है।
समस्या मुसलमान भी नहीं है।
समस्या है — 'आइडिया ऑफ इस्लाम' — इस्लाम का वह मूल विचार, जो 'आसमानी किताबों' के नाम पर जिहाद को पवित्र घोषित करता है और पूरी दुनिया पर अपना एकछत्र प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।
युद्ध मैदान पाकिस्तान नहीं है।
युद्ध मैदान भारत के वे स्थान हैं, जहाँ पाकिस्तान विचार का पोषण हो रहा है —
दारुल उलूम देवबंद, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, और लाखों मुल्ला-मौलाना जो इस्लामी सत्ता-संस्कृति को गुप्त या प्रकट रूप में आगे बढ़ा रहे हैं।
भारत के हर नगर में छोटे-छोटे 'मिनी पाकिस्तान' उग आए हैं —
जहाँ भारतीय संविधान नहीं चलता, जहाँ पुलिस का शासन नाममात्र है, और जहाँ मौलानाओं की स्वतंत्र सत्ता चलती है।
वहाँ इस्लामी शरीयत का अलिखित शासन है — वहाँ भारत का कोई कानून नहीं पहुँचता।
जब तक हम इस्लाम को, उसकी मूल अवधारणाओं को, उसके 'कालबोध' (क़यामत-जन्नत के मिथक) को शत्रु के रूप में नहीं पहचानेंगे, तब तक पाकिस्तान से युद्ध कर लेने से भी कुछ नहीं बदलेगा।
पाकिस्तान केवल एक भूगोल है, परंतु इस्लाम का काल्पनिक स्वर्ग एक विषाक्त मानस है।
यही कारण है कि आज कश्मीर के पहलगाम में धर्म पूछकर हिंदू पर्यटकों की जिहादी हत्या कर रहे हैं।
यही कारण है कि १४०० वर्षों से विश्व के कोने-कोने में रक्तपात हो रहा है — मजहब के नाम पर।
अतः लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए —
हमें पाकिस्तान को नहीं, इस्लाम की विचारधारा को लक्ष्य बनाना होगा।
तभी हम अर्जुन की तरह 'चिड़िया की आँख' पर लक्ष्य साध सकेंगे।
अन्यथा हर बार हमें भटकाया जाएगा — कभी पाकिस्तान के नाम पर, कभी शांति के नाम पर, कभी भाईचारे के नाम पर, कभी गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर, कभी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, कभी मानवाधिकारों के नाम पर — और असल समस्या हाथ से फिसलती रहेगी।
याद रखिए —
जब तक भारत के हर शहर में मिनी पाकिस्तान उगते रहेंगे, जब तक देवबंद और अलीगढ़ जैसे संस्थान इस्लामी विचार का पोषण करते रहेंगे, जब तक कानून से बाहर मौलाना-मुल्लाओं की सत्ता चलती रहेगी, तब तक पाकिस्तान से लड़ने का कोई अर्थ नहीं।
समाधान एक ही है —
इस्लाम की जड़ों पर वैचारिक प्रहार।
इस्लाम के मिथकों को तोड़ना।
और उस सामान्य मुसलमान को सच्चाई दिखाना, जो स्वयं भी इस विचार से पीड़ित है।
यही सत्य है।
यही रणभूमि है।
और यही धर्मयुद्ध है।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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