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भारत की समकालीन वैचारिक परिपाटी में एक अत्यन्त जटिल संघर्ष उभर कर सामने आया है, जिसमें हिन्दू समाज को तीन वैश्विक शक्तियों – इस्लाम, ईसाईयत तथा वामपंथ – के समवेत आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा है। ये तीनों धाराएँ भले ही बाह्य रूप से पृथक प्रतीत हों, किन्तु इनकी आन्तरिक प्रवृत्ति और उद्देश्य एक ही हैं—भारतीय संस्कृति की सनातन आत्मा को विकृत करना तथा हिन्दू समाज को उसकी मूल पहचान से वियुक्त कर देना।
हमें यह भलीभाँति ज्ञात है कि इस्लाम, ईसाईयत एवं वामपंथ—ये तीनों हमारे वैचारिक शत्रु हैं। इन तीनों का परम लक्ष्य हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा आर्यावर्तीय सभ्यता का समूल विनाश है। तथापि, कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जब शत्रु को तात्कालिक रूप से मित्रवत व्यवहार देना आवश्यक हो जाता है। परन्तु यह भी उतना ही यथार्थ है कि कोई भी राष्ट्र अथवा समाज समस्त दिशाओं में एक साथ संग्राम आरम्भ करके दीर्घकालीन विजय प्राप्त नहीं कर सकता।
रणनीति-शास्त्र का सिद्धांत है कि महान युद्धों में विजय हेतु शत्रु के अन्तःस्थित विरोधी को भी यथावसर मित्रवत व्यवहार में लाना ही बुद्धिमत्ता की चरम अभिव्यक्ति है।
वक़्फ़ बोर्ड संशोधन विधेयक के पारित होने के पश्चात पांचजन्य पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसे कुछ समय उपरान्त हटा लिया गया। उक्त लेख में उल्लेख किया गया था कि भारतवर्ष में चर्च के अधिकार क्षेत्र में लगभग तीन लाख एकड़ भूमि स्थित है। इस तथ्य को आधार बनाकर वामपंथी वैचारिक तंत्र सक्रिय हुआ तथा कांग्रेस नेता राहुल गांधी जैसे राजनीतिज्ञ यह कहने से भी नहीं हिचकिचाए कि केन्द्र सरकार अब ईसाई समुदाय को भी मुस्लिमों की भाँति लक्षित कर रही है। इस प्रकार 'हिन्दू बनाम ईसाई' का नैरेटिव उभारने का प्रयास किया जा रहा है।
हमें यह स्वीकारना होगा कि हमारे कई मित्र बिना सम्यक् वैचारिक दृष्टि के, आत्मप्रदर्शन की आकांक्षा में कुछ भी कह या लिख देते हैं, जिससे हमारे विरोधियों को अप्रत्याशित लाभ प्राप्त होता है। स्मरणीय है कि इस समय हिन्दू समाज के समक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है—अपने अस्तित्व की रक्षा, और इसके लिए वह समस्त संभावनाओं का प्रयोग कर सकता है। इस सन्दर्भ में चर्च का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में यूरोप के देश, जहाँ कभी ईसाईयत की जड़ें गहराई तक समाई थीं, अब वहाँ की पारंपरिक ईसाई व्यवस्था वोकिज़्म, नारीवाद और इस्लामिक अतिवाद के समक्ष असहाय प्रतीत होती है। चर्च स्वयं देख रहा है कि यूरोप में पारिवारिक संस्था नष्ट हो चुकी है, और उसकी संतानें अब अपनी आस्था, अपनी संस्कृति और अपने मूल्यबोध से विमुख होती जा रही हैं।
ऐसी स्थिति में चर्च वैश्विक वामपंथ और इस्लाम से आक्रांत अनुभव कर रहा है। इस परिस्थिति में हिन्दू समाज के पास यह सुअवसर है कि वह चर्च के समक्ष एक संतुलित और आश्वस्तिपूर्ण संवाद प्रस्तुत करे—कि भारत में उसका अस्तित्व हिन्दू समाज की उदारता पर आधारित है; परंतु यह तभी संभव है जब चर्च मतांतरण की अपनी आक्रामक प्रवृत्ति को नियंत्रित करे। यह आवश्यक नहीं कि चर्च अपने मूल सिद्धांतों से विमुख हो; परंतु समय-काल के अनुसार रणनीति में परिवर्तन किया जा सकता है, और उसी परिवर्तन से भारत में वैचारिक संतुलन स्थापित हो सकता है।
यह स्मरणीय है कि आज के युग का युद्ध केवल शस्त्रों से नहीं लड़ा जा रहा है, यह युद्ध विचारों, तर्कों और सांस्कृतिक श्रेष्ठता के बल पर लड़ा जा रहा है। इस्लाम जैसी मज़हबी व्यवस्थाएँ, जो ‘मानो या मरो’ की हिंसक प्रवृत्तियों को पोषित करती हैं, केवल तब ही परास्त की जा सकती हैं जब सज्जन शक्तियाँ उन्हें वैचारिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक रूप से निरुत्तर कर दें। तलवारें केवल शरीर को काटती हैं, परंतु विचार आत्मा को स्पर्श करता है—और विजय वहीं स्थायी होती है जहाँ आत्मा पर अधिकार होता है।
हिन्दू समाज ने पिछले हजार वर्षों में असंख्य संघर्षों को सहा है। कभी मुग़ल आक्रांताओं की तलवारें चलीं, तो कभी यूरोपीय मिशनरियों की चतुराई ने संस्कृति को झकझोरने का प्रयास किया। परंतु हिन्दू समाज फिर भी शेष रहा—अपनी स्मृति, परम्परा और आस्था के साथ। 1947 का विभाजन एक महात्रासदी अवश्य थी, परन्तु यह पराजय समाज की नहीं, अपितु नेतृत्व की थी।
अब समय आ गया है कि हिन्दू समाज को एक लक्ष्यनिष्ठ, विचारसम्पन्न, संगठित और आत्मबल से परिपूर्ण स्वरूप प्रदान किया जाए। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष को ध्यान में रखते हुए हिन्दू समाज के पुनर्जागरण हेतु ‘पञ्चप्रण’ रूपी एक महान संकल्प का उद्घोष किया है। यह संकल्प केवल संगठनात्मक स्तर पर ही नहीं, अपितु सांस्कृतिक आत्मचेतना के नवजागरण की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्व रखता है।
विशेषतः ‘कुटुम्ब प्रबोधन’ का यह प्रण इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि आज का समग्र वैचारिक संघर्ष अन्ततः हिन्दू परिवार व्यवस्था की रक्षा एवं पुनर्संस्थापन के प्रश्न पर केन्द्रित होता जा रहा है। वर्तमान समय में वामपंथ की विकृत वैचारिकता, वैश्विक बाजारवाद की उपभोक्तावादी संस्कृति, और विकृत नारीवाद तथा वोकिज्म के नाम पर पनप रही मूल्योंविहीनता—इन समस्त शक्तियों ने इस्लामी कट्टरता के साथ मिलकर हिन्दू समाज की नींव को विखण्डित करने का एक सुव्यवस्थित तंत्र खड़ा कर लिया है।
इन परिस्थितियों में यदि हिन्दू समाज अपने पारिवारिक, सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की रक्षा हेतु सजग और संगठित न हुआ, तो उसका अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाएगा। किन्तु प्रसन्नता की बात यह है कि आज का जागरूक हिन्दू समाज केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित न रहकर, बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी अपने आत्मसत्त्व की पुनराविष्कृति की दिशा में आगे बढ़ रहा है।
यदि यह प्रवृत्ति इसी प्रकार सशक्त होती रही, तो आगामी एक-दो दशकों में भारतवर्ष में धार्मिक राष्ट्रवाद का एक प्रखर आलोक प्रकट होगा, जो न केवल भारत को आत्मनिर्भर बनाएगा, अपितु वैश्विक मंच पर उसे सनातन दृष्टिकोण का मार्गदर्शक भी बना देगा। सम्भवतः यही वह भूमि होगी, जहाँ से ‘घर-वापसी’ की प्रक्रिया भी व्यापक स्तर पर प्रारम्भ होकर अनेक परिवर्तनों का संवाहक बनेगी।
किन्तु यह सब तभी सम्भव है जब हम अतिरेक में जाकर हर पक्ष को अपना शत्रु घोषित करने के मोह से बचें। प्रत्येक कालखण्ड की अपनी रणनीति होती है। आज की रणनीति यह कहती है कि संघर्ष की भूमि पर केवल धैर्यवान, दूरदर्शी और वैचारिक रूप से सजग सेनानायक ही विजय प्राप्त कर सकते हैं। हमें समाज को दीर्घकालीन दृष्टि के साथ तैयार करना होगा—उसके भीतर पुनः वही चेतना जाग्रत करनी होगी, जो भक्ति आन्दोलन, वेदांत दर्शन और गीता के युद्धनीति-सिद्धांतों में समाहित है। यह कोई सरकार नहीं कर सकती—यह कार्य समाज के भीतर से उदित होने वाले सांस्कृतिक नेतृत्व को ही करना होगा।
इसलिए आज का समय केवल वैचारिक संघर्ष का नहीं, अपितु सांस्कृतिक सर्जना का भी है। हमें युद्ध लड़ना भी है और समरसता का आह्वान भी करना है। हमें शत्रु को पहचानना भी है और यथासमय संवाद की भाषा भी अपनानी है। और सबसे बढ़कर, हमें हिन्दू परिवार व्यवस्था को उस सनातन धारा में दृढ़ करना है, जहाँ से यह राष्ट्र अपनी पुनरुत्थान की ओर अग्रसर हो।
✍️ दीपक कुमार द्विवेदी
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